मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

Pradosh wrat katha/trayodashi wrat katah/pujan vidhi/

प्रदोष व्रत 

  • प्रदोष  व्रत तेरस / त्रयोदशी को किया जाता है। 
  • सांयकाल से रात्रि प्रारम्भ होने के मध्य की अवधी को प्रदोष काल कहते हैं। 
  • प्रदोष काल की  अवधी में भगवान शंकर की पूजा की जाती है। 
  • प्रदोष  व्रत करने वाला सदैव सुखी रहता है। 
  • सुहागन नारियों का सुहाग सदा अटल रहता है। 
  • सभी कामनाएं कैलाशपति शंकर पूरी करते हैं। 
  • सूत जी कहते हैं प्रदोष व्रत करने वाले को सौ गाय दान करने के बराबर फल प्राप्त होता है। 

पूजन विधि 

  • दिन भर निराहार रहकर प्रदोष  व्रत करना चाहिए। 
  • सूर्यास्त से 3 घंटे पूर्व स्नान कर लें। 
  • स्वेत वस्त्र धारण कर पूजन करना चाहिए। 
  • संध्या आरती के उपरान्त शिव जी का पूजन प्रारम्भ करें। 
  • जिस प्रकार सभी पूजन किये जाते हैं उसी क्रम में पूजन करें। 
  • मुख्य पूजन में शिवजी का ध्यान करना चाहिए। 
  • आरती करें। 

कथा 

एक समय भागीरथी के तट पर एकत्र ऋषि मुनियों के समूह में सूतजी महाराज पहुंचे। उपस्थित सभी संतों ने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने ने मुनिश्रेष्ठ से आग्रह पूर्वक पूछा कि कलिकाल में पापकर्म में लिप्त मानव भगवान शंकर की आराधना किस प्रकार करे कि वह मनोवांछित फल प्राप्त करते हुए संसार से मुक्त हो सके । ऐसा कौनसा व्रत है कृपा कर बताने का कष्ट करें। 
यह सुनकर सूतजी महाराज बोले - हे ऋषियों, आपकी प्रबल परहित भावना को ध्यान में रखकर मैं प्रदोष  व्रत के सम्बन्ध में बताता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। धन-सम्पदा वृद्धिकारक, दुःख-संताप नाशक, सुख-संतान प्रदान करने वाले तथा मनवांछित फलदायक उस  व्रत के बारे में सुनाता हूँ जो भगवन शंकर ने सती  जी को सुनाया था। जिसे मेरे गुरु वेद व्यास जी ने मुझे सुनाया।  
सूत जी कहने लगे कि स्नान कर निराहार रहकर शिव मंदिर में जाकर शिवजी का पूजन कर उनका  ध्यान करें। 
पूजन के दौरान त्रिपुण्ड का तिलक लगा, बेलपत्र चढ़ाएं, धुप दीप, अक्षत से पूजा करें। ऋतु फल अर्पित करें। ॐ नमः शिवाय मन्त्र का रुद्राक्ष की माला से जप करें। ब्राह्मण को भोजन करा सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा दें। इसके बाद मौन व्रत रखें। सत्य भाषण करें। हवन करें।  ॐ ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा से आहुति दें। पृथ्वी पर शयन करें श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्व है। 
इस वृतांत को सुनाने के बाद ऋषि मुनियों के आग्रह पर प्रदोष  व्रत से लाभान्वित मनुष्यों की कथा सुनाते हुए सूतजी महाराज बोले - हे बुद्धिमान मुनियों, एक गांव में एक अति दीन ब्राह्मण की साध्वी पत्नी प्रदोष व्रत करती थी। उसके एक सुन्दर पुत्र था। एक समय स्नान के लिए जाते समय मार्ग में चोरों ने बालक को लूटने की दृष्टि से पूछा कि तेरी पोटली में क्या है ? बालक ने कहा इसमे माता द्वारा दी गई रोटी है। चोरों ने उसे जाने दिया। बालक एक नगर में पहुंचा और एक बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। चोरों की खोज में निकले नगर के सिपाही बालक को चोर समझकर समक्ष ले गए। राजा ने उसे कारावास दे दिया। उसी अवधी में बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी। इस कारण राजा को स्वप्न में दिखा कि वह बालक चोर नहीं है उसे छोड़ दो अन्यथा तेरे सम्पूर्ण वैभव नष्ट हो जाएगा। प्रातःकाल राजा ने बालक मुक्त करके माता पिता को बुलवाया औरऔर उनको ५ गाँव दान में देकर ससम्मान विदा किया। भगवान शिवजी की कृपा से अब वह परिवार आनंद पूर्वक रहता है। 
हे शिवजी महाराज जैसे दरिद्र ब्राह्मण का उद्धार किया वैसे ही सबका भला करना। 
इस कथा के बाद गणपति की कोई भी कथा सुने। 

अनुकरणीय सन्देश 

  • श्रद्धापूर्वक किया गया तप व्यर्थ नहीं जाता है। 
  • समूर्ण जांच करने के बाद ही किसी को दंड देना चाहिए। 

सोमवार, 12 अक्टूबर 2015

Bhaiya duj(Yam Dwitiya)/Bhai beej , pujan, katha, sandesh

भैया दूज (यम द्वितीया)/ भाई बीज 


  • भैया दूज दिवस दीपावली के एक दिन बाद आता   है।
  • पौराणिक कथा में यम और यमुना के होने से इसे यम द्वितीया भी कहा जाता है। 
  • सामान्यत:भैया दूज  दिन कोई व्रत नहीं किया जाता है। 
  • भैया दूज के दिन भाई के द्वारा बहिन के यहां भोजन करने तथा बहिन को उपहार देने  का प्रावधान है।
  • कुछ स्थानों पर इसमें पूजन करने और कथा का भी प्रचलन है।

पूजन विधि 

  • चित्र में दिखाए अनुसार भैया दूज को दिवार/कागज़/कार्ड शीट पर बना लें।  
  • प्रातः काल में पूजा करें। 
  • स्नान] प्राणायाम एवं ध्यान करें। 
  • गणपति की स्थापना करें। 
  • जैसे अन्य पूजा की जाती है वैसे ही पूजा करें।
  • पूजन विधि 8  फ़रवरी  2014 के दूसरे ब्लॉग में दी गई है।
  • हलवे का भोग लगाएं। 
  • कथा कहें।
  • भाइयों को भोजन पर आमंत्रित कर उन्हें भोजन करवाएं। 
  • भाइयों को तिलक लगाकर श्रीफल भेंट करें। 
  • इस दिन यमुना में स्नान का भी महत्व है। 

  • कथा - 1 यम द्वितीया या भैया दूज या भाई बीज   की पौराणिक कथा

    सूर्य देवता की पत्नी का नाम संज्ञा है।  यम और यमुना  उनके पुत्र और पुत्री हैं। यमुना अपने भाई यम से बहुत स्नेह करती थी। वे उनको  अभिन्न  मित्रों सहित सदैव अपने यहाँ आकर भोजन ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया करती थीं।  परन्तु व्यस्तता के चलते तथा इस विचार से कि मैं तो मृत्यु का देवता हूँ  किसी के यहां कैसे जा सकता हूँ यमराज टालते रहते थे। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने अपने भाई को वचनबद्ध कर आमंत्रित करने में सफलता प्राप्त कर ही ली। 

यमराज ने विचार किया कि समस्त जीव मुझसे भयभीत रहते हैं इसलिए मुझसे दूर रहने में ही अपना भला समझते हैं । इसी भय से मुझे कोई आमंत्रित नहीं करता है। अब यदि मेरी बहिना स्नेहवश मुझे आमंत्रित कर रही है तो मुझे अवश्य जाना चाहिए। बहिन के यहाँ जाना मेरा नैतिक कर्तव्य है। यमराज अचानक बहिन के यहाँ पहुँच गए। यम को आया देख यमुना की प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने यम को स्नान कराया। पूजा की, टीका निकाल कर आरती की एवं श्रीफल भेंट किया । स्वादिष्ट  पकवानों युक्त भोजन कराया। आदर सत्कार से अभिभूत होकर यमुना से वर मांगने का अनुरोध किया। यमुना ने कहा - हे भ्राता, आप प्रतिवर्ष पधारें और आज के दिन सभी भाई अपनी बहिन के यहाँ जाए और भोजन करे। मेरी तरह जो भाइयों का आदर सत्कार करे तथा टीका काढ़े  उसे कभी आपका भय नहीं रहे। यम ने तथास्तु कहा तथा यमुना को वस्त्र और आभूषण प्रदान किए तथा यमलोक के लिए प्रस्थान कर गए। इसी दिन को भैया दूज के रूप में मनाया जाता है। इस दिन जो भाई यमुना स्नान कर बहिन का आतिथ्य स्वीकार करे एवं उस दिन उसे उपहार दे उसे मृत्यु का भय नहीं रहता। 
 हे दूज माता सब  भाइयों एवं बहिनो को मृत्यु के भय से मुक्त करना।  

  • कथा - 2 भैया दूज या भाई बीज  की लौकिक कथा
       सात बहनों के बीच एक इकलोता छोटा भाई था । सब उसको बहुत स्नेह करते थे। छः बहिनों का विवाह तो बहुत दूर दूर हुआ परन्तु सबसे छोटी का पास के गाँव में हुआ। भाई की सगाई हो गई तथा विवाह की तिथि पास में आ गई। माँ ने कहा बेटा जाकर अपनी बहिनों को ले आ।  बेटा बोला माँ मैं अकेला इतनी दूर कहाँ कहाँ जाऊँगा। सबसे पास वाली बहिन को ले आता हूँ। माँ को भी बात समझ में आ गई। भाई बहिन के घर पहुंचा। संयोगवश उस दिन भैया दूज थी। वहां उसने देखा उसकी बहिन द्वार पर भाई की तस्वीर बनाकर पूजा कर रही थी। उसने भाई को आते देख लिया। पर वह पूजा करती रही। भाई चुपचाप देखता रहा। पूजा करने के बाद उसने पूछा भैया तुम कौन हो? मैंने पहचाना नहीं। भाई ने अपना परिचय दिया। भाई को साक्षात सामने देख वह बहुत प्रसन्न हुई उसकी नैन भर आए, आवाज भर्रा गई। । उसने कहा भैया मुझे क्षमा करना। मेरे विवाह के समय तुम बहुत छोटे थे इसलिए पहचाना नहीं। दोनों बात करते हुए घर के अंदर गए। सुख दुःख की  बातें की। उसने भाई के टीका लगाया, आरती उतारी, श्रीफल भेंट किया और विभिन्न पकवानों वाला स्वादिष्ट  भोजन कराया।  भाई ने अपने विवाह की बात बताई।  उसने कहा मैं तुम्हे लेने आया हूँ। बहिन ने कहा तुम जाओ विवाह का घर है कई काम होंगे। मैं परसों आ जाउंगी।  बहिन ने रास्ते के कलेवे के लिए  लडडू  बना कर दिए। भाई लडडू की पोटली लेकर चल पड़ा।  मार्ग में सुस्ताने के लिए उसने एक बरगद के पेड़ की छायाँ में पोटली बाँध कर लटका दी। बहिन ने भाई के जाने के बाद देखा कि बचे हुए लडडू को खाने से एक चूहा मर गया। उसने दाल पीसने की चक्की को देखा तो उसमें  उसे सांप की चमड़ी दिखाई दी। वह यह देख कर डर गई। लडडुओं में सांप का जहर आ गया था। वह भाई को सतर्क करने के लिए दौड़ पड़ी।  रास्ते में भाई उसे विश्राम करता मिला। वह समझी उसका भाई मर गया है। तभी उसकी निगाह  पेड़ की डाल से लटकी पोटली पर गयी। उसको कुछ शान्ति मिली। इतने में भाई की निद्रा भी टूट गई। उसने भाई को सारी बात बताते है उससे लडडू ले कर जमीन में गाड़ दिए।  बहिन ने अपनी सतर्कता से अपने भाई की जान बचा ली।
         हे भाई दूज माता  हे यम देवता  जैसे बहिन की सतर्कता ने भाई की रक्षा की वैसे ही सब बहिनों के भाई की रक्षा करना। 

      अनुकरणीय सन्देश 


  • भाई बहिन के पारस्परिक प्रघाढ़ सम्बन्ध भयमुक्त जीवन का आधार है। 
  • सतर्कता सुरक्षा के लिए आवश्यक है। 



गणपति की कहानी 

किसना बहुत शरारती लड़का था। उसकी माँ उसकी शरारतों से परेशान रहती थी। एक बार उसने गणेश चतुर्थी पर गणेशजी की स्थापना करते हुए प्रार्थना की कि हे  गणपति महाराज यदि आपने मेरे लड़के को नहीं सुधारा तो मैं आपका विसर्जन नहीं करुँगी। आप यहीं मेरे घर में पड़े रहोगे। गणपति यह सोचकर परेशान हो गए कि मैं क्या करूँ ? ये मेरी अनन्य भक्त है।  मुझे कुछ तो करना चाहिए। उन्होंने एक गाय के बछड़े का रूप धरा और लड़के के सामने उपस्थित हो गए। गणेशजी की ईच्छा अनुसार बछड़े को देख कर लड़के को शरारत सूझी।  उसने बछड़े की पूंछ पकड़ कर जोर से मरोड़ दी। बछड़ा डर कर अंधाधुंध भागा। बछड़ा रूपी गणेशजी दौड़ते हुए जानबूझकर एक वृक्ष से टकरा गए। उससे सर में चोट लगी और वो कराहने लगे। यह देख लड़के का मन द्रवित हो गया। उसने उसको बचाने का प्रयास किया पर बचा नहीं सका। वह उसे मारा समझ चुपचाप घर चला गया। रात में उसने सोने का प्रयास किया पर नींद आई । चौथे प्रहर उसे झपकी लगी। सपने में उसने देखा की गणेशजी उससे कह रहे हैं कि यदि तू शरारत करना छोड़ दे तो मैं बछड़े को जीवित कर सकता हूँ। किसना से गणेशजी से क्षमा मांगते हुए फिर कभी ऐसी शरारत नहीं करने की सौगंध खाई। गणेशजी ने कहा तथास्तु। जा बछड़ा जीवित हो जाएगा। यह कह वे अंतर्ध्यान हो गए। किसना की नींद खुल गई। उसे गणेशजी की बात याद आई।  वह दौड़ता हुआ उस वृक्ष के नीचे गया। वहां उसने बछड़े को उछल कूद करते देखा। उसने उसे सहलाया। वापस घर पहुँचा। किसना की माँ  ने किसना के व्यवहार में बहुत परिवर्तन देखा। उसने  देखा कि वह गंभीरता से पढ़ाई करता है और शरारते  छोड़ दी हैं। उसने किसना से पूछा तो उसने सारी बात सच सच बता दी। वह समझ गई यह सब गणेशजी की कृपा से हुआ है। उसने गणेशजी की प्रतिमा का धूमधाम से विसर्जन किया।  किसना  ने भी पूरी श्रद्धा के साथ उसमे भाग लिया। 
हे गणपति जैसे किसना की शरारतों को कम कर उसकी माँ  को राहत पहुंचाई वैसे ही सभी माँओ  को राहत पहुँचाना। 

अनुकरणीय सन्देश 


  • कभी कभी जीवन में कोई ऐसी घटना घटित हो जाती है जो आपका जीवन ही बदल देती है 



सोमवार, 11 अगस्त 2014

puja, wrat, upwaas, katha aur unake sandesh - Anantchaturdashi wrat

  अनन्तचतुर्दशी व्रत

  • भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्तचतुर्दशी कहते हैं। 
  • अनन्तचतुर्दशी के  दिन अनंत भगवान की पूजा की जाती है।

पूजन सामग्री -

कंकु, चावल, लच्छा,मेहंदी, चौकी, अलुने आटे के रोठ, शक्कर, अनन्तसूत्र, कच्चे सूत की कुकड़ी, दूब , गेंहूँ, जल, कलश, पुष्प, थोड़ा सा गोबर आदि। 

पूजन विधि - 

  • पकवान आदि का नैवेद्य लेकर नदी तट पर जाएँ।
  • वहां स्नान कर व्रत के लिए निम्न संकलप करें-
  • मैं  ....... गौत्र  ……… अपने समस्त पापों के निवारणार्थ तथा सुख समृद्धि की वृद्धि हेतु श्रीमद् अनंत भगवान की अनुकम्पा पाने के लिए अनन्त व्रत करने का संकल्प लेता हूँ।
  • कलश स्थापित कर पूजन करें।
  • गणपति की प्रतिष्ठा कर पूजन करें। 
  • कलश पर शेषशायी भगवान की प्रतिमा रखें ।  
  • प्रतिमा के सम्मुख चौदह गांठों युक्त केशर आदि में भीगा हुआ  अनन्त सूत्र (डोरा) रखें। 
  • भगवान विष्णु का सम्पूर्ण विधि विधान से नित्यानुसार पूजन करें। 
  • पूजन के दौरान ॐ अनन्ताय नमः का जाप करते रहें। 
  • इसके बाद अनन्तसूत्र को पुरुष दाहिनी तथा स्त्री बायीं भुजा में निम्नलिखित मंत्रोच्चारण के साथ बाँध लें।
  • मन्त्र - अनन्तसंसार महासमुद्रे, मग्नान समभ्युद्धर वासुदेव।  
  • अनन्तरूपे विनियोजितात्मा, ह्यनन्तरूपाये नमो नमस्ते।। 
  •  अनन्तसूत्र बंधन के उपरांत ब्राह्मण को भोजन करा एवं दक्षिणा देकर विदा करें और तत्पश्चात घर जाएँ। 
  • घर पर परिवारजनों के साथ बैठकर भगवान अनंत की संक्षिप्त पूजा कर  कथा वाचन करें। 
  • ( यदि नदी या सरोवर के किनारे जाना सम्भव न हो तो घर पर ही पूजन कर लें। यदि चाहें तो  सरोवर के प्रतिक स्वरुप एक चौड़े पात्र में जल भरकर रख सकते हैं। यदि पूजा घर पर ही की जाती है तो दुबारा पूजा करने की आवश्यकता नहीं। प्रतिमा न होने पर कलश के पास तस्वीर रखलें।  )

अनन्तचतुर्दशी व्रत की कथा - 

द्वापर युग में पांडव वनवास का कष्ट भोग रहे थे।  युधिष्ठर और द्रोपदी सहित सभी का कुशल मंगल जानने के लिए भगवान श्री कृष्ण वन में पधारे। वहाँ उन्होंने पांडवों के कष्ट को देखा। युधिष्ठर ने उनका स्वागत करते हुए कहा , " हे भ्राता, मुझे अपने अनुजों और द्रौपदी का दुःख देखा नहीं जाता है कृपया कर इनके दुखों को दूर कर सकूँ ऐसा कोई उपाय बताइये। "
भगवान श्री कृष्ण बोले, " हे ज्येष्ठ, भगवान श्री अनन्त का व्रत करने से समस्त कष्टों का निवारण हो जाता है। "
युधिष्ठर ने पूछा , " हे वासुदेव, कृपया कर इस व्रत को करने की सम्पूर्ण  विधि और इसके पीछे की कहानी को बताने का कष्ट करें। "
श्री कृष्ण बोले, " हे धर्मराज सुनो, प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के एक वसिष्ठ गौत्रीय मुनि थे। उनका विवाह भृगु ऋषि की पुत्री दीक्षा से हुआ था। उनकी पुत्री का नाम शीला था। पुत्री यथा नाम तथा गुण अत्यंत ही सुशील थी।  मुनि ने उसका विवाह कौण्डिन्यमुनि के साथ कर दिया। जब वे विवाह कर पुनः अपने घर  लौट रहे थे तो विश्राम के लिए यमुना  नदी के तट पर रुके।  शीला नदी के तट पर गई तो स्त्रियों को अनन्तव्रत करते देखा। अनन्त व्रत का माहात्म्य जानकार उसने भी व्रत करते हुए अनन्तसूत्र अपनी भुजा में बाँध लिया। घर पर पहुंचने  के बाद से अनंत भगवान की कृपा से परिवार की सुख समृद्धि में दिन दूनी रात चैगुनी वृद्धि होने लगी।" श्री कृष्ण ने अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कहा , " हे भ्राता, एक दिन कौडिन्य की दृष्टि पत्नी की भुजा पर बंधे अनन्तसूत्र पर पड़ गई। जिसे देखकर मुनि ने पूछा - 'क्या तुमने मुझे वाश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है ?'  शीला ने उत्तर दिया - 'नहीं प्रिय, यह अनन्त भगवान का सूत्र है।' परन्तु ऐश्वर्यमद में चूर मुनि ने क्रोध में आकर अनन्तसूत्र को तोड़कर फैंक दिया।  परिणास्वरूप जिस गति से समृद्धि आई थी उससे भी तीव्र गति से उसका ह्रास होने लगा। कष्टों में वृद्धि होने लगी। दीनहीन परिस्थिति हो जाने के कारण वे समाधान जानने के लिए वन में निकल पड़े। मार्ग में जो भी मिलता उससे वे अनन्त भगवान का पता पूछते जाते। किन्तु अंत में निराश होकर प्राण त्यागने के विचार से उन्होंने वृक्ष की शाखा पर फंदा बनाकर लटकने  ही जा रहे थे कि उसी समय एक वृद्ध ब्राह्मण ने उनको रोक लिया और कहा - 'चलो, गुफा में तुम्हे अनंत भगवान के दर्शन  कराता हूँ। '
जब वे गुफा में पहुंचे तो साक्षात चतुर्भुज स्वरुप भगवान विष्णु के दर्शन हुए। उनको देखकर मुनि भाव विह्वल होकर उनके समक्ष दंडवत होकर क्षमा याचना करने लगे, वे बोले - हे प्रभो, हे करुणा निधान, हे सर्वशक्तिमान, हे सर्वज्ञ आपसे तो कुछ छिपा नहीं हे मुझ अधम से गर्व के वशीभूत होकर आपका अपमान करने का  जो अपराध हुआ  है उसके लिए मुझे क्षमा करें।'
इस पर भगवान ने  कहा - 'सुनो, तुमने जो अनन्तसूत्र का तिरस्कार किया है उसके परिणामस्वरूप तुम्हारी यह दुर्गति हुई है, इसका परिमार्जन यही है कि तुम चौदह वर्ष तक अनन्तव्रत  करो। इसीसे तुम्हारी समृद्धि पुनः प्राप्त हो जाएगी और तुम सुखी हो जाओगे ।' कौडिन्य ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया और विनम्रता  पूछा ' हे दयानिधान, मैंने यहाँ आने से पूर्व मार्ग में  कुछ विचित्र बातें देखीं हैं आप सर्वज्ञ हैं , कृपया मुझे उनके बारे में बता कर मेरी जिज्ञासा को शांत करें। ' 
भगवान ने कहा - ' सुनो तुमने जो कुछ भी देखा है मैं जानता हूँ।  मार्ग में तुमने जो सड़े फलों वाला आम का पेड़ देखा था वह पूर्व जन्म में एक विद्वान ब्राह्मण था परन्तु उसने अपने शिष्यों को शिक्षा नहीं दी इसलिए वह इस प्रकार का आम का वृक्ष बना। अपने बछड़े के साथ इधर उधर भटकती जो गाय देखी वह बीज को खा जाने वाला  पृथ्वी का  भूभाग था, उपज नहीं देने के कारण वह अपना पेट भरने के लिए इधर उधर भटकने वाली गाय बनी। घास पर बैठा हुआ जो आलसी वृषभ देखा वह पूर्व जन्म में धर्म था परन्तु धर्म अधर्म का निर्णय सही नहीं करता था इसलिए आलसी बैल बना। एक दूसरे में कल्लोल करती जो दो पुष्करणियां(तलैया ) देखीं वे पूर्व जन्म में ब्राह्मण बहिनें थीं , वे धर्म अधर्म  सबकुछ आपस में मिलबैठ कर ले लेती थीं और कोई परोपकार नहीं करती थीं, इसलिए इस जन्म में स्वयं में सुन्दर होते हुए भी उनका जल पीने योग्य नहीं था। जो धूल में टाँगे पछाड़ता गदहा देखा वह क्रोध तथा  जो वनों को नष्ट करता मद मस्त हाथी देखा वह अभिमान था।  अंत में जो ब्राह्मण तुम्हे मिला वह  मैं  हूँ। और जो गुफा देख रहे हो वह यह कठिन संसार है। जीव पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का फल भोगता है, जिसके कारण उसे अपने अनन्तरूप परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता। जब काम, क्रोध, लोभ और मोह से पिंड छूटता है तभी मनुष्य का मन निर्मल होकर अपने आपको प्रभु के लिए समर्पित करता है। और अंततः विराट स्वरूप भगवान के दर्शन होते हैं। अन्यथा पूर्वजन्म के कुत्सित संस्कारों के कारण वह इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। '
यह कहकर भगवान अन्तर्धान   हो गए। मुनि ने आकर अनंतचतुर्दशी  व्रत प्रारम्भ कर दिया और पुनः समृद्धी को प्राप्त किया। इसी प्रकार है धर्मराज तुम भी अनंत व्रत करो।

अनुकरणीय सन्देश -

  • धन का मद नहीं करना चाहिए।
  • मद में आकर अनुचित कार्य करने से शुभकर्म से अर्जित ऐश्वर्य भी चला जाता है। 
  • क्रोध, अहंकार, स्वार्थ, आलस, कर्तव्यहीनता मानवता के शत्रु हैं। 
  • अपने ज्ञान को साझा करते रहना चाहिए।  
  • भगवान अनंत व्यापक है, दुनिया में आसक्ति के कारण उसका बोध नहीं होता है। 
  • सांसारिक विषयों से विमुख होकर ही जब मनुष्य अंतर्मुख होने लगता है तो उसे ईश्वर का साक्षात्कार होता है। 

   

रविवार, 6 जुलाई 2014

puja, wrat, upwas, katha aur unake sandesh - chauth mata(Shri Ganesh Chaturthiwrat) pauranik katha

श्रीगणेश चतुर्थीव्रत - पौराणिक माहात्म्य (चौथ माता)

  • चतुर्थी  व्रत को सामान्यतः चौथ माता के व्रत के रूप में जाना जाता है। 
  • इस ब्लॉग में चौथमाता व्रत के सम्बन्ध में प्रचलित कथाएँ पहले  की पोस्ट में दी गईं   हैं। 
  • वस्तुतः वे कथाएं श्रीगणेशचतुर्थी व्रत के महत्व को स्पष्ट करने के लिए सामान्य जन की सरल समझ को ध्यान में रख कर लिखी गई  हैं अथवा कही जाती हैं।
  • इस कथा में चतुर्थी तिथि की श्रेष्ठता को रेखांकित किया गया है।  इस तिथि को सभी तिथियों की माता मन गया है  इसीलिए इसे चौथ माता कहा जाता है। 
  • यह एक लम्बी कथा है पर यहाँ इसको संक्षेप में देने का प्रयास किया गया है। 

  • शिवपुराण की कथा -
जब भगवान शिव ने  त्रिशूल से पार्वतीनन्दन का मस्तक धड़ से पृथक कर दिया तो माता  पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गई। उन्होंने अनेक शक्तियों को उत्पन्न कर उन्हें  प्रलय मचाने की आज्ञा दी। सर्वत्र संहार प्रारम्भ हो जाने से देवताओं ने माता को शांत करने के लिए एक गज शिशु का सिर लाकर धड़ पर लगा दिया। कुपित माता को प्रसन्न करने के लिए भगवान शंकर ने अपने तेज से उस बालक को  जीवित कर दिया।  प्रसन्न माता को और अधिक प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश और उपस्थित देवताओं आदि ने उस बालक को 'सर्वाध्यक्ष ' घोषित कर दिया। 
भगवन आशुतोष ने अपने पुत्र को वरदान देते हुए कहा , " विघ्ननाशक के रूप में तेरा नाम सर्वश्रेष्ठ होगा। गणेश्वर, तू भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रोदय के शुभ समय पर जन्मा  है, उस समय रात्रि का प्रथम प्रहर जा रहा था। इसलिए प्रतिमास इस तिथि को भक्तिपूर्वक तेरी पूजा और व्रत करना चाहिए। यह व्रत परम शुभ तथा सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला होगा। "
शिवजी आगे बोले ," ये व्रत सभी वर्ण के लोगों  को करना चाहिए।  विशेषकर स्त्रियों और राजा को अवश्य करना चाहिए। व्रतकर्ता की  सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं। "

गणेशपुराण की कथा 

माता पार्वती ने गणेशजी का एकाक्षरी मन्त्र से जप करते हुए बारह वर्षों तक कठोर तप किया। इससे संतुष्ट होकर गुणवल्लभ गुणेश ने पार्वती जी के समक्ष प्रकट होकर उनके पुत्र के  रूप में अवतरित होने का वचन दिया। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के मध्यान्ह काल के समय जिस  दिन चंद्रवार, स्वाति नक्षत्र एवं सिंह लग्न था, पांच शुभ गृह एक साथ थे, उस समय माता पार्वती ने गणेश जी की पूर्ण विधि विधान से पूजा की जिससे श्री गणेशजी पुत्र रूप में प्रकट हुए। भगवान गणेशजी के प्रकट होने की तिथि होने से यह तिथि वरदा तिथि के नाम से प्रसिद्द है।  वरदा का अर्थ है वर दायिनी। 

मुद्गल पुराण की कथा 

परम शक्तिशाली और पराक्रमी लोभासुर  के आतंक से दुखी होकर देवताओं ने प्रभु  गजानन से लोभासुर से मुक्ति प्रदान करने की प्रार्थना की। गणेशजी ने परम पावन तिथि चतुर्थी को मध्याह्न काल में अवतरित होकर उसका  विनाश किया। इस कारण यह  तिथि  अत्यंत प्रीतिदायिनी हुई। 

तिथियों की माता चतुर्थी की कथा 

मुद्गल पुराण में  चूत माता व्रत की कथा है।  अत्यंत संक्षेप में इस कथा को  यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। 
लोकपितामह ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना  में सहयोग हेतु गणेशजी का ध्यान किया। उससे तिथियों की जननी देवी उत्पन्न हुई जिसके चार पैर, चार हाथ और चार मुख थे।
उस महादेवी ने ब्रह्मा के चरणस्पर्श और वंदना करते हुए कहा, " आप मेरे पिता हैं, मुझे आज्ञा प्रदान करें कि  मैं क्या करूँ ?" ब्रह्मा ने गणेशजी का स्मरण कर कहा कि तुम अद्भुत सृष्टि करो। साथ ही श्री गणेशजी का छः अक्षर मंत्र ' वक्रतुंडाय हुम्'  दिया।  
देवी ने हजारों वर्ष तक इस मन्त्र के साथ गणेशजी का ध्यान करते हुए कठोर तपस्या की। प्रसन्न होकर गणेशजी प्रकट हुए और कहा, " महभागे, मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ , तुम वर मांगो। " 
गणेशजी के बार बार के आग्रह के बाद देवी ने उनके पावन चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया, "करुणानिधे ! मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति और सृष्टि सृजन की सामर्थ्य प्रदान करें। मैं सदा आपकी प्रिय रहूँ और आपसे विलग न होऊं। " श्री गणेशजी ने कहा, " ॐ तथास्तु, सभी प्रकार फल देने वाली देवी तुम मुझे सदैव प्रिय रहोगी, तुम सभी तिथियों की माता होगी और तुम्हारा नाम चतुर्थी होगा। तुम मेरी जन्म तिथि होओगी। तुम्हारा वाम भाग कृष्ण और दक्षिण भाग शुक्ल होगा। तुम्हारा व्रत करने वाले का मैं  सदैव ध्यान रखूँगा और इस व्रत के समान और कोई व्रत नहीं होगा। "
यह कह कर भगवान अंतर्धान हो गए।  चतुर्थी माता  जैसे ही सृष्टि की रचना प्रारम्भ करने लगी सहसा उनका वाम भाग कृष्ण (काला) और दक्षिण भागशुक्ल ( श्वेत चमकीला ) हो गया।  पुनः जैसे ही उन्होंने गणेशजी का ध्यान करते हुए सृष्टि रचना प्रारम्भ की उनके मुख से प्रतिपदा, नासिका  से द्वितीया, वक्ष से तृतीया, अंगुली से पंचमी, ह्रदय से षष्टी, नेत्र से सप्तमी, बाहु से अष्टमी, उदर  से नवमी, कान से दशमी, कंठ से एकादशी, पैर से द्वादशी, स्तन से त्रयोदशी, अहंकार से चतुर्दशी, मन से पूर्णिमा और जिव्हा से अमावस्या तिथि प्रकट हुई। 
चौथ माता और अन्य तिथियों के द्वारा  गणेशजी का तप किये जाने पर गणेशजी ने चौथ माता को वर  दिया, "  शुक्लपक्ष की चतुर्थी के मेरे जो भक्त जन  निराहार रहकर  तुम्हारा व्रत एवं उपासना करेंगे उनके संचित कर्मों के फल समाप्त हो जाएंगे तथा मैं उनको सब कुछ प्रदान करूँगा।  तुम्हारा नाम ' वरदा ' होगा। " 
वहाँ से अंतर्धान होकर भगवान गणेशजी ने रात्रि के प्रथम प्रहर  में चन्द्रमा के उदित होने पर कृष्ण-चतुर्थी के पास जाकर वर माँगने को कहा। कृष्ण चतुर्थी ने कहा, " हे लम्बोदर, आप मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें, मैं  सदैव आपकी प्रिय रहूँ, आपसे कभी वियोग न हो और मैं सर्वमान्य रहूँ। " 
गणेशजी ने कहा, " हे महातिथे ! तुम  मुझे सदा प्रिय रहोगी तथा मेरे से अलग नहीं रहोगी। मेरे प्रसाद से तुम उपवास करने वालों का संकट हरो। उनको तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - सब कुछ प्रदान करोगी। मेरी कृपा से तुम सर्वदा भक्तों को आनन्द प्रदान करोगी।  इस दिन उपवास एवं चंद्रोदय के बाद भोजन  में  श्रावण में लड्डू, भादवे में दही, आश्विन में निराहार, कार्तिक में दूध, मार्गशीर्ष में जल, पौष में गोमूत्र, माघ में स्वेत तिल, फाल्गुन में शक्कर, चित्र में पांच गव्य, वैशाख में कमल गट्टा, ज्येष्ठ में गाय का घी औए आषाढ़ में मधु का सेवन करे तो श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है। "

अनुकरणीय सन्देश 
  • सम्भवहो तो प्रत्येक माह की दोनों चतुर्थी का व्रत एवं गणेश पूजन  करें।
  • यदि यह सम्भव न हो तो भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी 'बहुला', कार्तिक-कृष्ण-चतुर्थी 'करका /करवा', और माघ-कृष्ण-चतुर्थी 'तिलका' का व्रत करना चाहिए। 
  • चतुर्थी का व्रत वैभव प्रदाता, संकट मोचक तथा मोक्ष प्रदाता  है। 
  • उक्त कथा से ऐसा लगता है कि ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। 
  • अलग अलग माह में भिन्न प्रकार का आहार सुझाया गया है।  



गुरुवार, 19 जून 2014

puja, wrat, upawas, katha aur unake sandesh - rishipanchami wrat

 ऋषि पंचमी व्रत 

पूजन विधि :- 

  • यह व्रत भाद्रपद शुक्लपक्ष की पंचमी को किया जाता है। 
  • इस व्रत में अरुंधती सहित सप्त ऋषियों का पूजन किया जाता है इसीलिए इसे ऋषि पंचमी कहते हैं। 
  • ज्ञात अज्ञात पापों के निवारण के लिए पति-पत्नी द्वारा यह व्रत किया जाता है। 
  • महिलाओं द्वारा रजस्वला अवस्था में घर के सामान को स्पर्श कर लिए जाने के कारण होने वाले पाप के निवारण के लिए यह व्रत किया जाता है। 
  • प्रातःकाल से मध्यान्ह पर्यंत उपवास करके किसी नदी या तालाब पर जाकर शरीर पर मिटटी लगाकर  स्नान करें। स्नान से पूर्व अपामार्ग से दातुन करें।
  • कलश की स्थापना कर कलश पूजन करें। 
  • गणपति स्थापना कर पूजन करें। 
  • कलश के पास ही आठ दल(पंखुड़ी) का व्राताकार कमल बनाकर प्रत्येक दल में एक ऋषि की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। प्रतिष्ठित किए जाने वाले ऋषि हैं - कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वशिष्ठ। वशिष्ठ के साथ अरुंधती की प्रतिष्ठा करें। 
  • जैसा कि हर पूजन में किया जाता है वैसे ही सभी का पूजन करें। 
  • पूजन निम्नलिखित संकल्प साथ प्रारम्भ करें-
  • मैं.............. गौत्र  …………अपनी आत्मा से रजस्वला अवस्था में घर के बर्तन आदि को जाने अनजाने स्पर्श कर लिए जाने के दोष के निवारणार्थ अरुंधति सहित सप्त ऋषियों का पूजन करती हूँ.
  • इस दिन प्रायः दही और साठी का चावल खाया जाता है। नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हल से जुते हुए अनाज का उपयोग मना है। दिन में एक बार ही भोजन करना चाहिए। 
  • पूजन के पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराकर ही भोजन करना चाहिए। 
  • पुजन सामग्री ब्राह्मण को दान कर देनी चाहिए। 

ऋषि पंचमी की कथा :-

एक बार युधिष्टर ने भगवान  श्री कृष्ण से प्रश्न किया, " हे  प्रभु, मैंने आपके मुख से अनेक व्रतों के बारे में सुना  है कृपया कोई ऐसा व्रत बताएँ जिससे किसी स्त्री से गलती से हो गए समस्त पाप नष्ट हो जाएं। "
श्री कृष्ण बोले, " हे राजन, मैं तुम्हे ऋषिपंचमी  व्रत के बारे में बताता हूँ जो केवल स्त्रियों के लिए ही निर्धारित था  और जिसे करने से स्त्री द्वारा भुलवश हो गए किसी गलत कृत्य के पाप का निवारण हो जाता है।"
भगवान श्री कृष्ण आगे बोले, " हे राजन, रजस्वला स्त्री यदि गृह कार्यों में छूती है तो वह पाप कर्म की भागीदार होकर नरक को प्राप्त करती है।  अतः चारों ही वर्णों  ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य एवं शूद्र की   रजस्वला को गृह कार्यों से दूर ही रहना चाहिए।"
युधिष्टर ने पूछा, " हे प्रभु, ऋषिपंचमी व्रत का इतिहास क्या है? कृपया मुझे बताएँ।"
श्री कृष्ण बोले, " हे भ्राता, पूर्व समय में ब्राह्मण कुल के  वृत्रासुर का वध करने के कारण उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। तब ब्रह्माजी ने इस पाप को चार भागों में विभक्त कर पहला भाग अग्नि की ज्वाला, दूसरा नदियों के बरसाती जल, तीसरा पर्वतों में तथा चौथा भाग स्त्रियों के रज में डाल दिया था। इस पाप के कारण रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिन, दूसरे दिन ब्रह्महत्यारिन, तीसरे दिन धोबिन तथा चौथे दिन शुद्ध होती है। इस पाप से मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत करना चाहिए। सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजीत नामक राजा हुए थे। वे धर्मपरायण और प्रजापालक राजा थे। उनके राज्य में  एक वेदों का जानकार एवं परोपकारी  कृषक ब्राह्मण सुमित्र  रहता था। उसकी पत्नी जयश्री एक पतिव्रता पत्नी थी। एक समय जब वह कृषि कार्य में संलग्न थी उसी समय में वह रजस्वला हो गई। उसे इस बात का पता लगने के बाद भी उसने ध्यान नहीं दिया और घर समस्त कार्यों को करती रही। कुछ समय बाद देव योग से पति-पत्नी अपनी आयु पूर्ण कर एक साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। ऋतु  दोष के कारण जयश्री कुतिया तथा उसके संपर्क में रहने के कारण  ब्राह्मण ने बेल की योनि में जन्म लिया।इस पाप के अतिरिक्त उन दोनों ने कोई अन्य पाप नहीं किया था इसलिए इनको पूर्व जन्म की सारी बातें याद थी।  संयोग से वे दोनों अपने पुत्र सुमति के यहां ही पलने लगे। सुमति धर्मात्मा था, उसने अपने पिता के श्राद्ध के  लिए भोजन बनवाया था। खीर भी बनवाई गई थी। उस खीर में एक सांप ने जहर छोड़ दिया। अपने पुत्र को ब्रह्म हत्या से बचाने के लिए कुतिया रूपी सुमति की माँ ने अपनी बहु के सामने ही खीर में मुँह मार दिया। इस कृत्य के लिए सुमति की पत्नी ने कुतिया की बहुत पिटाई की  और खाने को भी कुछ नहीं दिया। रात्री में इस घटना को उसने अपने बैल रूपी पति को बताया।  पति उस पर नाराज होकर बोला कि तेरे ही पाप की सजा मैं इस बैल के रूप में भुगत रहां हूँ। आज मुझे भी कुटा गया है तथा खाने को भी नहीं मिला। उन दोनों के वार्तालाप को सुमति ने सुन लिया। उसने उन दोनों को भरपेट भोजन कराया। वह अपने कृत्य से दुखी हो कर वन में ऋषि के आश्रम में पहुँचा और उनसे उनकी इस दुर्दशा का कारण और अपने माता-पिता की मुक्ति का  उपाय बताने की विनती की। तब सर्वतपा नामक वह  ऋषि बोले - हे पुत्र, तुम्हारी माता द्वारा रजस्वला होते हुए भी गृह कार्यों को संपादित किए जाने के पाप कर्म के  कारण उन दोनों को यह योनि प्राप्त हुई है। इससे मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत करना होगा।  प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत होकर तथा मध्याह्न में नदी के शुद्ध जल से स्नान करके तथा नवीन वस्त्र धारण करके अरुंधति सहित सप्त ऋषियों की पूजा  करने से तुम्हारी समस्या का समाधान हो जाएगा। 
भगवान श्री कृष्ण आगे बोले - हे राजन, इसके इसके बाद सुमति अपने घर गया और उसने अपनी पत्नी के साथ पुरे विधिविधान से ऋषी पंचमी का व्रत किया और उसका पुण्यलाभ अपने माता-पिता को दिया।परिणामस्वरूप दोनों अपनी-अपनी योनियों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। इसके बाद से ऋषिपंचमी व्रत पतियों द्वारा भी किया जाने लगा। समस्त तीर्थ यात्राओं, समस्त व्रतों और समस्त दानों से जितने भी पुण्य प्राप्त होते हैं वे इस एक व्रत को करने से प्राप्त होते हैं। जो स्त्री इस व्रत को करती है वह समस्त सुखों को प्राप्त करती है तथा उसके समस्त पापों का निवारण हो जाता है तथा इस कथा को पढने सुनाने वालों के पाप भी नष्ट हो जातें हैं।
हे सप्त ऋषियों जैसे ब्राह्मण पति-पत्नी को पापमुक्त किया वैसे ही सभी को करना। 

 अनुकरणीय सन्देश :-

  • रजस्वला स्त्री को घरेलू कार्यों से दूर रहना चाहिए।
  • मातापिता की मुक्ति पुत्र के द्वारा अर्जित पुण्य से सम्भव है। 

गणेशजी की कथा :- 

एक बार ऋद्धि-सिद्धि पृथ्वी लोक का भ्रमण करती हुई भारतवर्ष के पाटलीपुत्र नामक नगर में पहुँची। वहां का वैभव देखकर उनकी आँखे खुली की खुली रह गई। वहां की समृद्धि का कारण जानने पर ज्ञात हुआ कि उस नगर के प्रत्येक घर  में गणेशजी की पूजा पूर्ण श्रद्धा के साथ की जाती है। भ्रमण के मध्य उनको एक अत्यंत जीर्ण शीर्ण घर दिखाई दिया। वह घर एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण का था। वे दोनों भिखारिनों का रूप धार कर पहुँची। उन दोनों को देखते से ही ब्राह्मण बोला, " मैं गणेशजी का अनन्य भक्त हूँ, मैं आपके चेहरे के तेज और आभा को देखकर  पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ  कि आप दोनों भिखारिन नहीं हैं  वैसे भी इस नगर में मुझसे दरिद्र और कोई नहीं है। सच बताइए कि तुम दोनों कौन हो ? " वे बोली, " हे विप्रवर , पहले आप ये बताइए   कि गणेशजी के अनन्य भक्त होने के उपरान्त भी आपकी यह दशा क्यों है?" 
ब्राह्मण बोला, " हे देवियों, मैं सोचता हूँ कि मेरी आस्था में ही कोई कमी है। मेरी दरिद्रता तो उनके प्रताप और आशीर्वाद से ही दूर हो सकती है। जिस दिन उनकी अनुकम्पा हो जाएगी उस दिन मैं भी समृद्ध हो जाऊंगा। अभी तो मैं उनकी कृपा  से संतुष्ट हूँ। वैसे मेरे पास इस समय देने को कुछ है नहीं।  तुम लोग कुछ देर पहले आती तो मैं अपने पास जो  था उसमे से दे सकता था पर अब कुछ नही है। तुम दोनों को आशीर्वाद देना भी तुम लोगों का अपमान होगा क्योंकि तुम लोगों के  चेहरे इस बात को बता रहें हैं मैं तुमसे उच्च नहीं हूँ। अब रात्रि बहुत हो गई है अब मुझे  सोने दीजिए।  " यह कह कर उसने दोनों को विदा कर दिया। वे दोनों अपनी यात्रा मध्य में ही छोड़कर गणेशजी के पास पहुंची और सब बात बताते हुए गणेशजी से ब्राह्मण की दरिद्रता दूर करने की अनुनय की। गणेशजी ने ब्राह्मण  को रातो रात समृद्ध बना दिया। सुबह ब्राह्मण समझ गया की यह सब गणेशजी की कृपा का ही फल है। उसको अब पका विश्वास हो गया कि वे भिक्षुणियाँ और कोई नहीं ऋद्धि-सिद्धि ही थीं।
हे गणेशजी महाराज जैसे उस ब्राह्मण की दरिद्रता को दूर कर समृद्ध किया वैसे ही अपने अनन्य भक्तों को समृद्ध बनाना। 

 अनुकरणीय सन्देश :-

  • संतोष और धैर्य का फल मीठा होता है। 
  • भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। 
  • किसी भी व्यक्ति को पूरा महत्व देना चाहिए चाहे वह कितना ही दरिद्र क्यों न हो। 

   

रविवार, 15 जून 2014

puja, wrat, upwas, kathaye aur unake sandesh - Hartalika wrat

हरतालिका व्रत कथा 

पूजन विधि : -

भगवान शिव के मुख से पार्वती को बताई गई पूजन विधि पर आधारित -
  •  हरतालिका  व्रत सौभाग्यवती महिला और अच्छे  पति की चाह रखने वाली कन्याएं करती है।
  • हरतालिका व्रत भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के सांयकाल को प्रारम्भ कर तृतीया की रात तक किया जाता है। यह व्रत निराहार और निर्जला रहकर किया जाता है।
  •  पूजा से पूर्व नित्यानुसार स्नान, प्राणायाम एवं ध्यान करें।
  • बालू(रेत) से भगवान शिव का लिंग बनाकर तथा शिव-पार्वती की मूर्ति का पूजन शास्त्र सम्मत विधि से जैसे अन्य  पूजा की जाती  है वैसे ही  करना चाहिए।   ॐ नमः शिवाय मंत्र के साथ108 बार बिल्वपत्र चढ़ाना चाहिए। इस दिन सभी प्रकार के पुष्प-पल्लव चढ़ाने चाहिए। अंत में शिव आरती करने  के बाद दोनों हाथों से पुष्पांजली अर्पित करनी चाहिए। इस अवधि  में कम से कम तीन बार पूजा करने का विधान है। चतुर्थी  दिन बालू से निर्मित शिव लिंग का नदी में विसर्जन करना चाहिए। 
  • पूजा समाप्ति पर तीन ब्राह्मणों को भोजन कराके दक्षिणा देनी चाहिए। यदि भोजन कराना सम्भव न  हो तो भोजन सामग्री भिजवाई जा सकती है या फिर इस  निमित्त दक्षिणा के साथ अतिरक्त    और दे देनी चाहिए। यदि यह सब कुछ भी परिस्थियोंवश किया जाना  सम्भव न हो तो किसी मंदिर में श्रद्धानुसार राशी भेंट कर देनी चाहिए। 
  • कथा कहें।
  • सासुजी, बहिन, बेटी का बायणा  निकाले और उनके चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें या उनके घर पहुँचा दें। 
  • हरतालिका व्रत खोलें अर्थात भोजन करें।

हरतालिका व्रत कथा :-

एक दिन की बात है, भगवान शिव  अपनी पत्नी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे। सभी गंधर्व, किन्नर, ऋषि, मुनि आदि उनकी स्तुति कर रहे थे। अचानक माँ पार्वती ने  शिवजी से पूछा, " हे महेश्वर,   मैं सौभाग्य शाली हूँ कि मुझे आप जैसे पति मिले, हे स्वामी, क्या मैं जान सकती हूँ कि मैंने ऐसे कौनसे कर्म या पुण्य किए कि आप जैसे पति मुझे प्राप्त हुए। " शिवजी बोले, " हे प्राणप्रिये, तुमने एक अत्यंत ही उत्तम एवं कठिन व्रत किया था, वह अत्यंत गुप्त व्रत है, पर तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करना मेरा कर्तव्य है इसलिए उसका वृतांत मैं तुम्हे बताता हूँ। " शिवजी आगे बोले, " हे प्रिये, यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तीज को किया जाता है। इसे हरतालिका तीज का व्रत कहते हैं। यह सभी व्रतों में श्रेष्ठतम व्रत है। यदि उस दिन हस्त नक्षत्र हो तो इसकी श्रेष्ठता और बढ़ जाती है। माँ पार्वती बोली, " हे प्रभु, इस व्रत के बारे में मुझे विस्तारपूर्वक बताने की अनुकम्पा करें। "
भगवान बोले - भारतवर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत है, उसके राजा का नाम हिमांचल था। वहां तुम रानी मैना की कोख से उत्पन्न हुई थी। बाल्यकाल से ही तुमने ईश्वर आराधना करना प्रारम्भ कर दिया था।  बाद में तुमने मेरे बारे में जानने के बाद मुझे पाने के लिए अपनी सहेली के साथ जाकर गुफाओं में रहकर घोर तपस्या की। तुमने ग्रीष्म ऋतू में तपती चट्टानों पर बैठकर, वर्षा  ऋतू के घनघोर बरसते पानी में भीगते हुए, हिम ऋतू में बर्फीले तूफानी थपेड़ों को झेलते हुए तपस्या की। प्रारम्भ में तुमने फलों का सेवन किया, बाद में तुम केवल सूखे पत्तों और अंत में केवल वायु का सेवन किया। तुमने  शरीर को अत्यंत क्षीण कर लिया। तुम्हारी यह स्थिति देखकर तुम्हारे पिता को चिंता होने लगी। उनकी चिंता को जानकार नारद ऋषि राजा के पास पहुंचे। राजा ने उनका स्वागत सत्कार किया। नारदजी ने बताया , " हे हिमालय नरेश, मुझे बैकुंठवासी भगवान श्री विष्णु ने आपके पास भेजा है। वे आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं।  क्या आपको स्वीकार है?"
इसे राजा ने अपना और पुत्री का सौभाग्य मानते हुए स्वीकृति दे दी। यह समाचार नारदजी ने  भगवान विष्णु को तथा राजा ने अपने पुत्री उमा को सुनाया। यह जानकर उमा को बहुत दुःख हुआ,  अपनी सहेली से कहा  कि  वह तो शिवजी को वरण करना चाहती है। इस पर सहेली उमा को एक अनजान गहरी गुफा में ले गई।  राजा चिंतित हो उठा कि  उमा कहाँ विलोपित हो गई। अब वे भगवान विष्णु को क्या उत्तर देंगे। राजा अपने  वचन का पालन न कर पाने के भय के कारण मूर्छित हो गए। मूर्छा टूटने पर उन्होंने सोचा कि कहीं  उनकी पुत्री के साथ कोई अनहोनी न हो गई हो। 
भगवान शिवजी आगे बोले - जब तुम्हारे पिता तुम्हे खोज रहे थे तुम कठोर तपस्या में लीन थीं। तुमने वहाँ नदी में बालू से लिंग स्थापित किया और वन में उपलब्ध पत्तों, पुष्पों और फलों से पूजा-अर्चना करने लगीं। उस दिन भाद्रपद मॉस के शुक्ल पक्ष की तृतीया थी तथा हस्त नक्षत्र भी था। कठोर तप से मेरा सिंहासन डॉल उठा, मैं तुम्हारे सामने प्रगट हुआ।  मैंने पूछा, " हे देवी, तुम क्यों इतना कठोर तप कर रही हो, तुम्हारी इच्छा क्या है? अपने मन की बात मुझसे कहो। "
तब तुमने स्त्री सुलभ लज्जा  के साथ कहा, " हे प्रभो, आप तो अन्तर्यामी हैं, मेरे मन की बात आपसे छुपी नहीं है, मैं आपको अपने पति रूप में वरण करना चाहती हूँ। "
मैं तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गया। उसके बाद तुम बालू निर्मित लिंग को जब नदी में विसर्जित कर रही थी तभी तुम्हारे पिता भी वहाँ पहुंच गए। राजा ने तुम्हे अपने गले  लगा कर पूछा, " हे पुत्री, तुम इस भयानक वन में क्या कर रही हो, चलो घर चलो। " तुमने अपने  पिता से कहा, " मैं सदाशिव से विवाह करना चाहती हूँ पर आपने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है इसलिए मैं नहीं  सकती। " तब तुम्हारे पिता ने कहा, " पुत्री, चिंता मत करो, मैं तुम्हारा विवाह सदाशिव से ही करूंगा " इस वचन के कारण  विवाह मेरे साथ हो गया। हे देवी तुम्हारी सहेली ने तुम्हारा हरण कर  गुफा में रखा और व्रत कराया इस लिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा।
अपने पति भगवान शिवजी से व्रत के बारे में सुनने के बाद माँ पार्वती बोलीं, " हे देव, कृपया आप मुझे  इस पावन व्रत की  विधि और   फल के बारे में भी बताएं। "
इस  पर शिवजी ने व्रत   की सम्पूर्ण विधि  को विस्तारपूर्वक बताया। उन्होंने बताया , " हे उमा, इस व्रत को करने से नारियां सौभाग्यवती, पुत्रवती, धन-सम्पदा युक्त होकर सुखी जीवन को प्राप्त करती है। कन्याएं इस व्रत को करने से मनोवांछित सुयोग्य पति को प्राप्त करती है। जो नारी व्रत रखने के बाद चोरी से अन्न खाती है वह अगले जन्म में शुकरी, जो फल खाती है वह बंदरिया,  दूध पीती है वह सर्पिणी, जो पानी पीती है वह जोंक, जो मांस खाती है वह बाघिन, जो दही खाती है वह बिल्ली, जो मिठाई खाती है वह चींटी,  जो सब चीजें खाती  है वह मक्खी, जो रात्री जागरण नहीं करके सोती है वह अजगरी, जो पति को धोखा देती है वह मुर्गी का जन्म लेती है। हे उमा जो इस व्रत को पूर्ण विधि विधान से करती है वह मुझसा भोला पति पाती है तथा अगले जन्म में तुम्हारे सामान रूपवान हो कर संसार के सभी उत्तम सुखों को प्राप्त करती है।

अनुकरणीय सन्देश :-

  • कन्या संकल्पित होकर अच्छा मनचाहा व्रत प्राप्त कर सकती है।
  • संकल्प को छोड़ देने अथवा धोखा देने का फल अच्छा नहीं होता है।

गणपति की कथा : -

एक गांव में एक स्वाभिमानी निर्धन वृद्धा रहती थी। उसका पति किसी असाध्य रोग से पीड़ित था। वह किसी से मदद नहीं लेती थी। वह दिन-रात परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करती थी। एक दिन जंगल में वह लकड़ी बीनने गई। दिनभर सूखी लकड़ी इकट्ठी कर गट्ठर बनाकर सर पर रखने लगी तो वह नहीं उठा सकी। परेशानी में उसके मुंह से निकल गया , " हे गणेशजी महाराज इससे तो मौत भली। " उसकी यह बात सुनकर गणेशजी यमदूत का रूप धर कर आ पहुंचे। साक्षात मौत को सामने देखकर वृद्धा ने घबराकर गट्ठर उठाकर सर पर रख लिया और बोल पड़ी, " मुझे अभी नहीं मरना। मेरे रोगग्रस्त पति की देखभाल की जिम्मेदारी मुझ पर है। अभी मुझे छोड़ दो।" गणेशजी वहां से चले गए। गणेशजी ने वृद्धा को यह अहसास करा दिया कि जीवन से भागना समस्या का समाधान नहीं है।
  हे गणेशजी जैसी सीख वृद्धा को दी वैसी ही सबको देना। 
अनुकरणीय सन्देश :- 
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर उनका सामना करना और अपने कर्म करते रहना ही मानव का धर्म है।










बुधवार, 11 जून 2014

Puja, wrat, upwas, kathayen aur unake sandesh - waibhaw lakshmi wrat katha
पूजा, व्रत, उपवास, कथाएं और उनके सन्देश - वैभव लक्ष्मी व्रत कथा
पूजन विधि:- 

  • यह व्रत शुक्रवार को किया जाता है.
  • व्रत प्रारम्भ करने से पहले ही 11 या 21 व्रत करने का संकल्प लिया जाता है.
  • व्रत लगातार करना श्रेष्ठ होता है लेकिन किसी कारण से व्यवधान आने पर संकल्पित संख्या के व्रत अवश्य करने चाहियें.
  • पूजा करने से पूर्व स्नान, प्राणायाम एवं ध्यान अवश्य करें.
  • गणपति की स्थापना एवं पूजा करें.
  • जैसे अन्य पूजा की जाती है वैसे ही चावल पर महालक्ष्मी के चित्र और श्रीयंत्र(यदि हो तो ) विराजित कर पूजा करें.
  • पूजा के पश्चात कथा कहें.
  • अंतिम शुक्रवार को उजवन करें. 11 कन्याओं को भोजन कराएं. भोजन में चावल की खीर अवश्य हो.

वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा 

एक बड़ा नगर था. उसमें शीला अपने पति के साथ रहती थी. दोनों ही संतोषी, विवेकी, सुशील, ईमानदार और धार्मिक प्रवृति के थे. ये परनिंदा में कभी भी सम्मिलित नहीं होते थे. उनकी आदर्श गृहस्थी की सभी प्रशंसा करते थे. परन्तु अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के  फलस्वरूप शीला का पति गलत संगत में पड़ गया और नशा, जुंवा आदि करने से उसकी हालत भिखारियों जैसी हो गई. वह शीला के साथ भी दुर्व्यवहार करने लग गया.
   शीला को भगवान् पर अगाध श्रद्धा थी. वो अपने ईश्वर के भरोसे सब कुछ सहन करती रही. वह प्रभु भक्ति में और अधिक समय देने लगी. एक दिन किसी के द्वारा घर का दरवाजा खटखटाए जाने पर उसने खोला तो देखा कि एक अलौकिक आभा युक्त वृद्धा खडी हुई थी. उसने चरणस्पर्श करते हुए  उन्हें आमंत्रित कर दरी पर बैठाया. वृद्धा ने कहा , " बेटी शीला , ऐसा लगता है कि तुमने मुझे पहचाना नहीं." शीला ने कहा, " माताश्री, ऐसा लगता है जैसे कि मैं आपको जानती तो हूँ पर क्षमा करें पहचान नहीं  पा रही हूँ."
   "अरे पगली, अपन प्रति शुक्रवार को महालक्ष्मी के मंदिर में होने वाले भजन-कीर्तन में मिलते तो हैं." वृद्धा ने उसके सर पर हाथ फिराते हुए स्नेहभरी मुस्कराहट के साथ कहा. परन्तु फिर भी शीला को कुछ याद नहीं आया.
शीला के चहरे के भावों को देखते हुए वृद्धा बोली," बहुत दिनों से तू दिखाई नही दी तो मैं तेरे हाल चाल पूछने चली आई."
सात्वना भरे शब्दों से  शीला का धीरज टूट गया और उसने सारी आपबीती सुनादी. सब सुनाने के बाद वृद्धा बोली, " इस या उस जन्म के फल बहुत भुगत लिए अब तेरे अच्छे दिन आने वाले हैं. तू वैभव लक्ष्मी का व्रत कर." उन्होंने व्रत की पूरी विधि बतादी.
  सब सुनकर शीला ने आँखे बंद कर संकल्प लिया  कि वह पुरे 21 शुक्रवार तक व्रत करेगी. जब आँखें खोली तो सामने वृद्धा नहीं दिखाई दी. वह वृद्धा और कोई नही साक्षात महालक्ष्मी थी इसलिए वे अंतर्ध्यान हो गई. अगले दिन शुक्रवार था. उसी दिन से शीला ने व्रत करना प्रारम्भ कर दिए. पहले ही दिन जब पुरे विधिविधान से व्रत करने के बाद उसने प्रसाद अपने पति को दिया तो उसके पति के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दिया. उसके पति ने उस दिन उस पर हाथ नहीं उठाया. 21 वे शुक्रवार को उसने बताये गए तरीके से उजवन किया. उसने महालक्ष्मी की तस्वीर को प्रणाम कर मन ही मन प्रार्थना की कि हे माँ मैंने इस व्रत का संकल्प लिया था जो आज पूरा हुआ. हे माँ मेरी मनोकामना पूरी करना. व्रत की अवधी के दौरान शीला के पति की आदतों में भी बदलाव आता गया था. परिणामस्वरूप उसका काम धंधा अच्छा चल निकला और सारा वैभव पुन; लौट आया.
  हे लक्ष्मी माता जैसे तूने शीला को वैभव दिया वैसे सभी को देना.
अनुकरणीय सन्देश :-

  • बुरे कर्मों का फल अच्छा नहीं होता है.
  • दृढ संकल्प के साथ किए गए कार्य में अवश्य ही सफलता मिलती है.
  • प्रयास करने से अच्छे दिन अवश्य आते हैं.

गणेशजी की कथा 
एक गाँव में तीन मित्र रहते थे. वे गणेशजी के पक्के भक्त थे. एक दिन गणेशजी ने यह जानने के लिए कि कौन श्रेष्ठ भक्त है उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया. उन्होंने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर उन तीनों से भेंट की. उन्होंने तीनों को एक एक थाली देकर कहा कि यह हर व्यक्ति की भूख शांत करने की क्षमता रखती है.
तुम भूखों की भूख मिटाने के लिए इसका उपयोग कर सकते हो. यह कह कर वे चले गए.
 दो मित्र दो अलग अलग स्थानों पर जाकर बैठ गए. जो भी उधर से निकला उसको उन्होंने भरपेट भोजन कराया. तीसरा  मित्र वह थाली लेकर जगह जगह घुमाता रहा और जो भी भूखा मिला उसको भोजन कराया. दूसरे दिन वृद्ध रूपी गणेशजी पुनः उन तीनों मित्रों से मिले और उनसे थाली का उपयोग कैसे किया ये पूछा. तीनों की बात सुनने के बाद गणेशजी अपने असली रूप  में आ गए और बोले कि तीसरा व्यक्ति ही मेरा सच्चा भक्त है अतः इसे मैं वर माँगने के लिए कहता हूँ. तीसरे मित्र ने कहा, " हे भगवन मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए
मैं तो बस इतना ही चाहता हूँ कि मेरे द्वार से कोई भी भूखा न जाए. गणेशजी ने कहा जा दिया. तीसरा व्यक्ति जीवन भर लोगों की मदद करता रहा.
  हे गणेशजी महाराज तीसरे मित्र जैसा ही मन और क्षमता सब को देना ताकि कोई भी भूखा न सोए.
अनुकरणीय सन्देश :- 
सच्ची सेवा का फल सदैव अच्छा होता है.