श्री सत्यनारायण व्रत
यह व्रत और कथा सबसे पहले ली गई है क्योंकि यह किसी अवसर विशेष से जुड़ी हुई नहीं है तथा आजकल महिलायें हर पूर्णिमा को किया करती हैं.
आवश्यक पूजन सामग्री -
केले के पत्ते, पंच पल्लव(पांच पत्ते- आम/अशोक/पान), कलश, चावल, कपूर, धूप, अगरबत्ती, पुष्प, माला, श्रीफल(जटायुक्त सम्पूर्ण नारियल), ऋतू फल(मौसम में उपलब्ध फल), नैवेद्य(प्रसाद/भोग), कसार का प्रसाद(गेहूं के आटे को घी में सेक कर तथा उसमें शक्कर मिलाकर बनाते है.) गुलाब के फूल, दीपक, तुलसी पत्र, पूजा के डंडी वाले पान, पंचामृत, केशर, बंदनवार, चौकी आदि.
पूजा विधि -
- व्रत वाले दिन प्रातःकाल/सायंकाल स्नान आदि करके श्रीसत्यानारयांजी की तस्वीर के साथ केले के पत्तों आदि से सुन्दर झांकी बनालें. विशेष प्रयोजन से की जाने वाली कथा जिसमे अन्य मेहमान आदि आमंत्रित हों तो झांकी अवश्य बनानी चाहिए. इससे अपने को एवं आगंतुकों को भक्ति के लिए एक अच्छा उपयुक्त वातावरण मिलता है. मासिक रूप से की जाने वाली पूजा में यह आवश्यक नहीं है.
- आसन पर बैठकर ध्यान आदि की क्रिया पूर्ण करलें.
- गणपति एवं कलश स्थापना कर सभी प्रकार का पूजन प्रथम दो पोस्ट में बताये अनुसार करलें.(देखे पहली दो पोस्ट दिनांक 8 फ़रवरी 2014 )
श्रीसत्यनारायण व्रत कथा
इस कथा में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि सत्य ही नारायण अर्थात ईश्वर है तथा विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से सत्य क्या है इसे भी बताया गया है.
प्रथम अध्याय -
एक समय नैमिश्याराण्य तीर्थ में शौनकादिक अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्रीसूतजी से पूछा, " हे प्रभु, इस कलियुग में मनुष्य के उद्धार के लिए कोई ऐसा तप बताइए जिससे मनोवांछित फल मिले."
श्रीसुतजी ने कहा, " हे भक्तों, मैं उस श्रेष्ठ व्रत को जिसे कि नारदजी ने भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण से सुना था उसे तुन्हें सुनाता हूँ. ध्यानपूर्वक सुनने से वांछित फल मिलता है. सुनो -
एक बार नारदजी मृत्यु लोक में प्रायः सभी मनुष्यों को दुखी देखकर भगवान से उनके दुखों का नाश हो सके ऐसा उपाय जानने के लिए विष्णुलोक पहुंचे. वहाँ उन्होंने शंख, चक्र, गदा,पद्म धारी भगवान की स्तुति की.
स्तुति सुनकर प्रभु बोले, " हे मुनिश्रेष्ठ, आप किस लिए पधारे हैं, कृपया नि:संकोच होकर कहें."
नारदमुनी बोले, " हे नाथ, मृत्युलोक में सभी मनुष्य अत्यंत दुखी हैं, कोई ऐसा सरल उपाय बताइए जिससे कि थोड़े से ही प्रयास से उनके दुःख दूर हो जाएं."
श्रीभगवान बोले, " हे नारद, जिस व्रत को करने से मनुष्य मोहमाया से मुक्त होकर आयु पर्यंत सुख भोगकर, मरने पर मोक्ष को प्राप्त करता है, वह मैं बताता हूँ."
नारदजी बोले , " प्रभु, व्रत का फल क्या है, कब करना चाहिए तथा उसकी विधि क्या है?
भगवन बोले, " यह व्रत दुखों को दूर कर वैभव, सौभाग्य, संतान तथा सदैव विजय देने वाला है. किसी भी दिन प्रातःकाल के समय ब्राह्मणों, सम्बन्धियों, मित्रों आदि के साथ मिलकर भगवान् श्रीसत्यनारायण की पूजा करें. भक्तिभाव से नैवेद्य, केले, घी, दूध और गेंहू का चूर्ण(कसार) तथा खाने योग्य समस्त सामग्री भगवान् के चरणों में अर्पण करें. सभी अतिथियों को भोजन कराएं तत्पश्चात स्वयं भोजन करें. कलियुग में यही मोक्ष प्राप्ति का सरल उपाय है."
बोल सत्यनारायण भगवान् की जय.
दूसरा अध्याय -
सूतजी बोले, " हे मुनियों, जिन लोगों ने इस व्रत को सबसे पहले किया उनकी कथा सुनाता हूँ. सुंदर काशीपुरी में सतानंद नामक एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था. भगवान ने उसे दुखी देखकर एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरकर उससे आदरपूर्वक पूछा, " हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, तुम क्यों दुखी हो, मुझसे कहो. " सतानंद ब्राह्मण बोला , " मैं निर्धन हूँ तथा भीख मांग कर पेट भरता हूँ."
वृद्ध वेशधारी भगवान् बोले, " हे ब्राह्मण, तू सब दुखों को दूर कर मनोवांछित फल देने वाले का व्रत श्रीसत्यनारायण भगवान् का व्रत कर." यह कहकर उन्होंने व्रत की पूर्ण विधि बताई और अन्तर्धान हो गए. गरीब ब्राह्मण घर जाकर सोने का प्रयास करने लगा पर सुबह की प्रतीक्षा करने और व्रत के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं कैसे होगी इस चिंता में सो न सका. सुबह उठकर भिक्षा माँगने निकल पड़ा. भगवान की कृपा से उसे बहुत भीख मिली. इस भिक्षा से उसने अपने परिवार वालों के साथ मिलकर श्रीसत्यनारायण भगवान् का व्रत किया. उससे उसका दारिद्र दूर हुआ और उसे संपतियां प्राप्त हुई.
यह घटना सुनकर ऋषियों ने सूतजी महाराज से आग्रह किया, " हे मुनीश्वर, इस ब्राह्मण से सुनकर और किस किस ने इस व्रत को किया और उन लोगों को क्या फल मिले, कृपया हमें बताएं."
सूतजी बोले, " सुनो, एक बार एक ब्राह्मण श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहा था, उसी समय एक गरीब लकडहारा वहाँ आया और उसने पूछा , " आप यह कौनसा व्रत कर रहे हैं, इससे क्या फल मिलता है.?"
ब्राह्मण से व्रत की विधि की जानकारी कर तथा प्रसाद ग्रहण कर लकडहारा मन में व्रत करने का संकल्प लेकर लकड़ी का गट्ठर लेकर बेचने निकल पड़ा. धनवानों की बस्ती में उसे उस लकड़ी का पहले से भी चौगुना पैसा मिला. लकडहारे ने उस पैसे से श्रीसत्यनारायण भगवान् के व्रत से सम्बन्धित समस्त सामग्री खरीदी तथा घर जाकर पूर्ण श्रद्धा के साथ पूजा की. उस व्रत के प्रभाव से लकडहारे को संतान, धन आदि प्राप्त हुए और वह सब सुखों को प्राप्त कर बैकुंठ को प्राप्त हुआ.
बोल श्रीसत्यनारायण भगवान् की जय.
तीसरा अध्याय-
सूतजी बोले, " हे श्रेष्ठ मुनियों, प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का सत्यनिष्ट, जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमान राजा था. उसकी सुंदर, सती-साध्वी पत्नी तथा राजा ने मिलकर भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण भगवान् की पूजा की. उसी समय एक साधू नाम का सेठ आया और उसने राजा से व्रत का माहात्म्य पूछा. राजा से जानकारी लेकर वैश्य बोला, " मेरे भी कोई संतान नहीं है इसलिए मैं भी यह व्रत करूंगा."
साधू ने घर पहुँच कर अपनी पत्नी लीलावती से व्रत की बात बताकर कहा, " यदि मुझे संतान प्राप्त हुई तो मैं भी यह व्रत करूँगा. " एक दिन उसकी पत्नी श्रीसत्यनारायण भगवान् की कृपा से गर्भवती हो गई. लीलावती सेठानी ने दसवें महीने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया. कन्या का नाम कलावती रखा. लीलावती ने अपने पति को उसके व्रत की याद दिलाई. इसपर साधू सेठ ने कहा, " इसके विवाह पर करूँगा". यह कहकर वो व्यापार करने चला गया. कलावती शीघ्रता से बड़ी होने लगी. एक दिन सेठ का ध्यान अपनी पुत्री की ओर गया तो उसे देखकर उसके विवाह की चिंता जाग उठी. उसने अपने दूत को अच्छा लड़का देखने के लिए भेजा. दूत को कंचन नगर में एक सुंदर वणिक पुत्र दिखा. साधू ने उस सुयोग्य, सुशील और सुंदर युवक के साथ कलावती का विवाह कर दिया. पर व्रत करना भूल गया. श्रीसत्यनारायण भगवान् ने सोचा कि वचन नहीं निभाने वाले को सबक सिखाना चाहिए यदि सबक नहीं सिखाया तो यह आम जन के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेगा. उन्होंने उसे दुखी करने का विचार किया. सेठ और उसका जामाता रतनपुर नगर में व्यापार करने के लिए गए हुए थे. एक दिन भगवान् की माया से प्रेरित होकर चोर राजा का धन चुराकर भाग रहे थे. राजा के सिपाही पीछे पड़े हुए थे. पकडे जाने के डर से चोरों ने धन साधू सेठ और उसके जामाता के ठिकाने पर रख दिया. सिपाहियों ने दोनों को पकड़ कर राजा के समक्ष प्रस्तुत किया. उनको कठोर कारावास का दंड दिया गया. कई दिन तक समाचार न मिलने से सेठानी और कलावती भी दुखी हो गए. उनका धन भी चोर ले गए. सेठ के काराग्रह में बंद होने से उनका आपसी संपर्क टूट गया. भूख से पीड़ित होकर कलावती एक ब्राह्मण के घर भीख माँगने पहुंची. वहां श्रीसत्यनारायण भगवान् की पूजा हो रही थी. पूजा की समाप्ति पर प्रसाद ग्रहण कर वह देरी से घर लोटी. देरी से आने पर माता ने उसे बुरा भला कहा. इस पर कलावती ने श्रीसत्यनारायण भगवान् के व्रत की बात बताई. यह सुनकर लीलावती को अपने पति के वचन की याद आ गई. उसने तत्काल पूजा की व्यवस्था की. पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनके दुःख दूर करने के लिए अपने द्वारा रचित माया को हटा लिया. उधर राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में कहा, " राजन दोनों वैश्य निर्दोष हैं. उन्हें उनका धन लौटाकर छोड़ दो." प्रात:काल राजा ने सभा में स्वप्न सुनाते हुए दोनों को छोड़ने का आदेश दिया. दोनों को सभा में बुलाकर क्षमा माँगते हुए तथा पहले से दुगुना धन देकर ससम्मान विदा किया.
बोल श्रीसत्यनारायण भगवान् की जय.
चतुर्थ अध्याय -
सूतजी आगे की कथा सुनाते हुए बोले - दोनों सेठों ने अपनी आगे की यात्रा प्रारम्भ की और अपने नगर की ओर चल पड़े. मार्ग में एक नदी पड़ती थी . उन्होंने नाव में अपना सामान रखा . इतने में ही दंडी वेशधारी भगवान श्रीसत्यनारायण वहां आ पहुंचे. उन्होंने साधू सेठ से पूछा, " हे सेठ तेरी नाव में क्या है? " अभिमानी साधू बोला, " मेरी नाव में बेल और पत्ते भरे हुए हैं. तू यदि धन की लालसा से पूछ रहा है तो तुझे निराशा होगी क्योंकि मेरे पास धन नहीं है." यह सुनकर भगवान् ने कहा, " तेरे वचन सत्य हों. " इतना कह कर वे नदी के तट पर जाकर बैठ गए. श्रीसत्यनारायण भगवान् के समक्ष मिथ्या वचन के कारण उनका सारा धन बेल पत्तों में बदल गया जिससे नाव हलकी होकर पानी की सतह में ऊपर उठ गई. घबराकर सेठ मूर्छित हो गया. दामाद पानी के छींटे देकर उसे होंश में लाया. हो न हो वह दंडी वेश धारी और कोई नहीं भगवान ही होंगे. यह सब उस अन्तर्यामी के समक्ष झूंठ बोलने का परिणाम है. हमें उनके पास जाकर क्षमा मांगनी चाहिए. वे दोनों दंडी की शरण में पहुंचे. अत्यंत भक्तिभाव से प्रणाम कर वे बोले, " हे भगवन, आप अनादि है, अनंत हैं, निराकार हैं, ब्रह्मा भी आपके रूप को नहीं पहचानते तो मैं तो मुर्ख, अज्ञानी, अभिमानी आपको कैसे पहचान सकता हूँ. कृपया मुझे क्षमा करें तथा प्रसन्न हों. मैं सामर्थ्य के अनुसार पूजा करूंगा. मेरी रक्षा करो." सेठ के भक्ति भाव और उसके निश्चल प्रायश्चित के भावों से प्रसन्न होकर उसे ईच्छानुसार वर देकर भगवान् श्रीसत्यनारायण ओझल हो गए. नाव पर आकर उन्होंने देखा की उनकी नाव पुनः पहले जैसे ही धन से भर गई थी. उसने प्रसन्न होकर उसी समय श्रीसत्यनारायण भगवान् की पूजा की. पूजा कर उसने अपनी नौका को अपने नगर की ओर बढाया. नदी के तट पर एक व्यक्ति को अपने पहुँचने का समाचार देने हेतु अपने घर भेजा. दूत से समाचार मिलते ही सेठानी ने श्रीसत्यनारायण भगवान् की पूजा की तथा अपनी पुत्री से कहा की तू पूजा पूर्ण करके आना. मैं अपने पति का स्वागत करने जाती हूँ. अपनी सास के जाने के बाद कलावती के मन में विचार आया कि मेरे पति भी तो आ रहे हैं क्या मुझे उनका स्वागत करने नहीं जाना चाहिए? इसी विचार से प्रेरित होकर कलावती श्रीसत्यनारायण भगवान् का प्रसाद लिए बिना ही चली गई. नाव से साधू उतरा ही था कि कलावती भी वहां पहुँच गई. इससे श्रीसत्यनारायण भगवान् ने उसे सीख देने के लिए माया से उसके पति सहित नाव को लुप्त कर दिया. पति को न देख कलावती विलाप करती हुई मूर्छित हो गई. इस घटना को देखकर साधू को यह समझते देर नहीं लगी कि यह सब श्रीसत्यनारायण भगवान् की माया का प्रभाव है. साधू ने भगवान् श्रीसत्यनारायण से प्रार्थना की - " हे, प्रभु मुझसे अथवा मेरे परिवार से जो भी जाने अनजाने भूल हुई हो उसके लिए क्षमा करते हुए कृपया प्रसन्न होइए. भगवान श्रीसत्यनारायण साधू की सच्चे मन से की गई विनती से द्रवित हो गए. उन्होंने आकाशवाणी के द्वारा कहा - " हे साधू, तेरी कन्या ने मेरे प्रसाद का अनादर किया है, इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है. यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर लौटे तो उसे उसका प्रसाद अवश्य मिलेगा."
इन वचनों को सुनकर कलावती ने घर जाकर प्रसाद ग्रहण किया और लौटकर पति के दर्शन किए. वहां से घर पहुँच कर उसने भगवान श्रीसत्यनारायण की पूजा की. उस दिन से साधू हर पूर्णिमा को भगवान श्रीसत्यनारायण का पूजन करने लगा तथा दीर्घायु प्राप्त करते हुए अंत में स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ.
बोल श्रीसत्यनारायण भगवान् की जय
पंचम अध्याय -
सूतजी ने अपनी कथा निरंतर रखते हुए कहा- हे ऋषियों, तुंगध्वज नामक एक प्रजापालक राजा था. भगवान का प्रसाद त्याग कर उसने भी बहुत दुख भोगा. एक समय वन में उसने ग्वालों को श्रीसत्यनारायण भगवान्
का पूजन करते देखा. जब ग्वालों ने भगवान् का प्रसाद राजा के के सामने रखा तो अभिमानवश यह सोचकर कि इन निम्न लोगों से प्रसाद ग्रहण करना ठीक नहीं है वह प्रसाद का परित्याग कर चला गया. अपनी नगरी में पहुँच कर उसने देखा कि सबकुछ नष्ट हो गया है. वह पुनः वन में गया तथा ग्वालों के साथ मिलकर श्रीसत्यनारायण भगवान् का पूजन किया, प्रसाद ग्रहण किया और लौटकर नगर में आया. वहाँ उसने पूर्वानुसार ही सब कुछ सुरक्षित पाया.
हे ऋषियों, जो मनुष्य इस परम फलदायक व्रत को पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, एकाग्रता और समर्पण के साथ करता है उसे श्रीसत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से धन-धान्य, संपदा, आज्ञाकारी संतान, सुशील जीवन साथी तथा मृत्युलोक से मुक्ति प्राप्त होती है और अंततः वह बैकुंठवासी भगवान विष्णु के चरणों में स्थान प्राप्त करता है.
जिन्होंने पहले यह व्रत किया था अब उनका अगले जीवन का व्रतांत सुनाता हूँ. वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर भगवान श्रीकृष्ण के सानिध्य से मोक्ष को प्राप्त किया. उल्कामुख नाम का राजा दशरथ भगवान् राम का पिता बन बैकुंठ को प्राप्त हुआ. साधू नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने दुराचारी पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया. महाराज तुंगध्वज ने स्वयं भू होकर भगवान में भक्तियुक्त कर्म कर मोक्ष को प्राप्त किया.
बोल सत्यनारायण भगवान् की जय.
इतिश्री सत्यनारायण व्रत कथा.
अनुकरणीय सन्देश -
- सदैव सत्य वचन ही बोलें.
- ईश्वर को मन में रखकर संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करने का फल अच्छा ही प्राप्त होता है.
- अपने द्वारा किए गए संकल्प, वादे, अथवा दीए गए वचन का पालन अवश्य करें.
- संकल्प को पुरा नहीं करने वाले को दुखी होना पड़ता है.
- अभिमानवश या अन्य कारण से भगवान् के प्रसाद को त्यागना उचित नहीं है.
- उंच-नीच, छुआ-छूत का भेदभाव करने से दुखी होना पड़ता है.
इतिश्री सत्यनारायण व्रत कथायां संपूर्णम.
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