गुरुवार, 19 जून 2014

puja, wrat, upawas, katha aur unake sandesh - rishipanchami wrat

 ऋषि पंचमी व्रत 

पूजन विधि :- 

  • यह व्रत भाद्रपद शुक्लपक्ष की पंचमी को किया जाता है। 
  • इस व्रत में अरुंधती सहित सप्त ऋषियों का पूजन किया जाता है इसीलिए इसे ऋषि पंचमी कहते हैं। 
  • ज्ञात अज्ञात पापों के निवारण के लिए पति-पत्नी द्वारा यह व्रत किया जाता है। 
  • महिलाओं द्वारा रजस्वला अवस्था में घर के सामान को स्पर्श कर लिए जाने के कारण होने वाले पाप के निवारण के लिए यह व्रत किया जाता है। 
  • प्रातःकाल से मध्यान्ह पर्यंत उपवास करके किसी नदी या तालाब पर जाकर शरीर पर मिटटी लगाकर  स्नान करें। स्नान से पूर्व अपामार्ग से दातुन करें।
  • कलश की स्थापना कर कलश पूजन करें। 
  • गणपति स्थापना कर पूजन करें। 
  • कलश के पास ही आठ दल(पंखुड़ी) का व्राताकार कमल बनाकर प्रत्येक दल में एक ऋषि की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। प्रतिष्ठित किए जाने वाले ऋषि हैं - कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा वशिष्ठ। वशिष्ठ के साथ अरुंधती की प्रतिष्ठा करें। 
  • जैसा कि हर पूजन में किया जाता है वैसे ही सभी का पूजन करें। 
  • पूजन निम्नलिखित संकल्प साथ प्रारम्भ करें-
  • मैं.............. गौत्र  …………अपनी आत्मा से रजस्वला अवस्था में घर के बर्तन आदि को जाने अनजाने स्पर्श कर लिए जाने के दोष के निवारणार्थ अरुंधति सहित सप्त ऋषियों का पूजन करती हूँ.
  • इस दिन प्रायः दही और साठी का चावल खाया जाता है। नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हल से जुते हुए अनाज का उपयोग मना है। दिन में एक बार ही भोजन करना चाहिए। 
  • पूजन के पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराकर ही भोजन करना चाहिए। 
  • पुजन सामग्री ब्राह्मण को दान कर देनी चाहिए। 

ऋषि पंचमी की कथा :-

एक बार युधिष्टर ने भगवान  श्री कृष्ण से प्रश्न किया, " हे  प्रभु, मैंने आपके मुख से अनेक व्रतों के बारे में सुना  है कृपया कोई ऐसा व्रत बताएँ जिससे किसी स्त्री से गलती से हो गए समस्त पाप नष्ट हो जाएं। "
श्री कृष्ण बोले, " हे राजन, मैं तुम्हे ऋषिपंचमी  व्रत के बारे में बताता हूँ जो केवल स्त्रियों के लिए ही निर्धारित था  और जिसे करने से स्त्री द्वारा भुलवश हो गए किसी गलत कृत्य के पाप का निवारण हो जाता है।"
भगवान श्री कृष्ण आगे बोले, " हे राजन, रजस्वला स्त्री यदि गृह कार्यों में छूती है तो वह पाप कर्म की भागीदार होकर नरक को प्राप्त करती है।  अतः चारों ही वर्णों  ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य एवं शूद्र की   रजस्वला को गृह कार्यों से दूर ही रहना चाहिए।"
युधिष्टर ने पूछा, " हे प्रभु, ऋषिपंचमी व्रत का इतिहास क्या है? कृपया मुझे बताएँ।"
श्री कृष्ण बोले, " हे भ्राता, पूर्व समय में ब्राह्मण कुल के  वृत्रासुर का वध करने के कारण उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। तब ब्रह्माजी ने इस पाप को चार भागों में विभक्त कर पहला भाग अग्नि की ज्वाला, दूसरा नदियों के बरसाती जल, तीसरा पर्वतों में तथा चौथा भाग स्त्रियों के रज में डाल दिया था। इस पाप के कारण रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डालिन, दूसरे दिन ब्रह्महत्यारिन, तीसरे दिन धोबिन तथा चौथे दिन शुद्ध होती है। इस पाप से मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत करना चाहिए। सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजीत नामक राजा हुए थे। वे धर्मपरायण और प्रजापालक राजा थे। उनके राज्य में  एक वेदों का जानकार एवं परोपकारी  कृषक ब्राह्मण सुमित्र  रहता था। उसकी पत्नी जयश्री एक पतिव्रता पत्नी थी। एक समय जब वह कृषि कार्य में संलग्न थी उसी समय में वह रजस्वला हो गई। उसे इस बात का पता लगने के बाद भी उसने ध्यान नहीं दिया और घर समस्त कार्यों को करती रही। कुछ समय बाद देव योग से पति-पत्नी अपनी आयु पूर्ण कर एक साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। ऋतु  दोष के कारण जयश्री कुतिया तथा उसके संपर्क में रहने के कारण  ब्राह्मण ने बेल की योनि में जन्म लिया।इस पाप के अतिरिक्त उन दोनों ने कोई अन्य पाप नहीं किया था इसलिए इनको पूर्व जन्म की सारी बातें याद थी।  संयोग से वे दोनों अपने पुत्र सुमति के यहां ही पलने लगे। सुमति धर्मात्मा था, उसने अपने पिता के श्राद्ध के  लिए भोजन बनवाया था। खीर भी बनवाई गई थी। उस खीर में एक सांप ने जहर छोड़ दिया। अपने पुत्र को ब्रह्म हत्या से बचाने के लिए कुतिया रूपी सुमति की माँ ने अपनी बहु के सामने ही खीर में मुँह मार दिया। इस कृत्य के लिए सुमति की पत्नी ने कुतिया की बहुत पिटाई की  और खाने को भी कुछ नहीं दिया। रात्री में इस घटना को उसने अपने बैल रूपी पति को बताया।  पति उस पर नाराज होकर बोला कि तेरे ही पाप की सजा मैं इस बैल के रूप में भुगत रहां हूँ। आज मुझे भी कुटा गया है तथा खाने को भी नहीं मिला। उन दोनों के वार्तालाप को सुमति ने सुन लिया। उसने उन दोनों को भरपेट भोजन कराया। वह अपने कृत्य से दुखी हो कर वन में ऋषि के आश्रम में पहुँचा और उनसे उनकी इस दुर्दशा का कारण और अपने माता-पिता की मुक्ति का  उपाय बताने की विनती की। तब सर्वतपा नामक वह  ऋषि बोले - हे पुत्र, तुम्हारी माता द्वारा रजस्वला होते हुए भी गृह कार्यों को संपादित किए जाने के पाप कर्म के  कारण उन दोनों को यह योनि प्राप्त हुई है। इससे मुक्ति के लिए ऋषि पंचमी का व्रत करना होगा।  प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत होकर तथा मध्याह्न में नदी के शुद्ध जल से स्नान करके तथा नवीन वस्त्र धारण करके अरुंधति सहित सप्त ऋषियों की पूजा  करने से तुम्हारी समस्या का समाधान हो जाएगा। 
भगवान श्री कृष्ण आगे बोले - हे राजन, इसके इसके बाद सुमति अपने घर गया और उसने अपनी पत्नी के साथ पुरे विधिविधान से ऋषी पंचमी का व्रत किया और उसका पुण्यलाभ अपने माता-पिता को दिया।परिणामस्वरूप दोनों अपनी-अपनी योनियों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। इसके बाद से ऋषिपंचमी व्रत पतियों द्वारा भी किया जाने लगा। समस्त तीर्थ यात्राओं, समस्त व्रतों और समस्त दानों से जितने भी पुण्य प्राप्त होते हैं वे इस एक व्रत को करने से प्राप्त होते हैं। जो स्त्री इस व्रत को करती है वह समस्त सुखों को प्राप्त करती है तथा उसके समस्त पापों का निवारण हो जाता है तथा इस कथा को पढने सुनाने वालों के पाप भी नष्ट हो जातें हैं।
हे सप्त ऋषियों जैसे ब्राह्मण पति-पत्नी को पापमुक्त किया वैसे ही सभी को करना। 

 अनुकरणीय सन्देश :-

  • रजस्वला स्त्री को घरेलू कार्यों से दूर रहना चाहिए।
  • मातापिता की मुक्ति पुत्र के द्वारा अर्जित पुण्य से सम्भव है। 

गणेशजी की कथा :- 

एक बार ऋद्धि-सिद्धि पृथ्वी लोक का भ्रमण करती हुई भारतवर्ष के पाटलीपुत्र नामक नगर में पहुँची। वहां का वैभव देखकर उनकी आँखे खुली की खुली रह गई। वहां की समृद्धि का कारण जानने पर ज्ञात हुआ कि उस नगर के प्रत्येक घर  में गणेशजी की पूजा पूर्ण श्रद्धा के साथ की जाती है। भ्रमण के मध्य उनको एक अत्यंत जीर्ण शीर्ण घर दिखाई दिया। वह घर एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण का था। वे दोनों भिखारिनों का रूप धार कर पहुँची। उन दोनों को देखते से ही ब्राह्मण बोला, " मैं गणेशजी का अनन्य भक्त हूँ, मैं आपके चेहरे के तेज और आभा को देखकर  पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ  कि आप दोनों भिखारिन नहीं हैं  वैसे भी इस नगर में मुझसे दरिद्र और कोई नहीं है। सच बताइए कि तुम दोनों कौन हो ? " वे बोली, " हे विप्रवर , पहले आप ये बताइए   कि गणेशजी के अनन्य भक्त होने के उपरान्त भी आपकी यह दशा क्यों है?" 
ब्राह्मण बोला, " हे देवियों, मैं सोचता हूँ कि मेरी आस्था में ही कोई कमी है। मेरी दरिद्रता तो उनके प्रताप और आशीर्वाद से ही दूर हो सकती है। जिस दिन उनकी अनुकम्पा हो जाएगी उस दिन मैं भी समृद्ध हो जाऊंगा। अभी तो मैं उनकी कृपा  से संतुष्ट हूँ। वैसे मेरे पास इस समय देने को कुछ है नहीं।  तुम लोग कुछ देर पहले आती तो मैं अपने पास जो  था उसमे से दे सकता था पर अब कुछ नही है। तुम दोनों को आशीर्वाद देना भी तुम लोगों का अपमान होगा क्योंकि तुम लोगों के  चेहरे इस बात को बता रहें हैं मैं तुमसे उच्च नहीं हूँ। अब रात्रि बहुत हो गई है अब मुझे  सोने दीजिए।  " यह कह कर उसने दोनों को विदा कर दिया। वे दोनों अपनी यात्रा मध्य में ही छोड़कर गणेशजी के पास पहुंची और सब बात बताते हुए गणेशजी से ब्राह्मण की दरिद्रता दूर करने की अनुनय की। गणेशजी ने ब्राह्मण  को रातो रात समृद्ध बना दिया। सुबह ब्राह्मण समझ गया की यह सब गणेशजी की कृपा का ही फल है। उसको अब पका विश्वास हो गया कि वे भिक्षुणियाँ और कोई नहीं ऋद्धि-सिद्धि ही थीं।
हे गणेशजी महाराज जैसे उस ब्राह्मण की दरिद्रता को दूर कर समृद्ध किया वैसे ही अपने अनन्य भक्तों को समृद्ध बनाना। 

 अनुकरणीय सन्देश :-

  • संतोष और धैर्य का फल मीठा होता है। 
  • भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। 
  • किसी भी व्यक्ति को पूरा महत्व देना चाहिए चाहे वह कितना ही दरिद्र क्यों न हो। 

   

रविवार, 15 जून 2014

puja, wrat, upwas, kathaye aur unake sandesh - Hartalika wrat

हरतालिका व्रत कथा 

पूजन विधि : -

भगवान शिव के मुख से पार्वती को बताई गई पूजन विधि पर आधारित -
  •  हरतालिका  व्रत सौभाग्यवती महिला और अच्छे  पति की चाह रखने वाली कन्याएं करती है।
  • हरतालिका व्रत भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के सांयकाल को प्रारम्भ कर तृतीया की रात तक किया जाता है। यह व्रत निराहार और निर्जला रहकर किया जाता है।
  •  पूजा से पूर्व नित्यानुसार स्नान, प्राणायाम एवं ध्यान करें।
  • बालू(रेत) से भगवान शिव का लिंग बनाकर तथा शिव-पार्वती की मूर्ति का पूजन शास्त्र सम्मत विधि से जैसे अन्य  पूजा की जाती  है वैसे ही  करना चाहिए।   ॐ नमः शिवाय मंत्र के साथ108 बार बिल्वपत्र चढ़ाना चाहिए। इस दिन सभी प्रकार के पुष्प-पल्लव चढ़ाने चाहिए। अंत में शिव आरती करने  के बाद दोनों हाथों से पुष्पांजली अर्पित करनी चाहिए। इस अवधि  में कम से कम तीन बार पूजा करने का विधान है। चतुर्थी  दिन बालू से निर्मित शिव लिंग का नदी में विसर्जन करना चाहिए। 
  • पूजा समाप्ति पर तीन ब्राह्मणों को भोजन कराके दक्षिणा देनी चाहिए। यदि भोजन कराना सम्भव न  हो तो भोजन सामग्री भिजवाई जा सकती है या फिर इस  निमित्त दक्षिणा के साथ अतिरक्त    और दे देनी चाहिए। यदि यह सब कुछ भी परिस्थियोंवश किया जाना  सम्भव न हो तो किसी मंदिर में श्रद्धानुसार राशी भेंट कर देनी चाहिए। 
  • कथा कहें।
  • सासुजी, बहिन, बेटी का बायणा  निकाले और उनके चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें या उनके घर पहुँचा दें। 
  • हरतालिका व्रत खोलें अर्थात भोजन करें।

हरतालिका व्रत कथा :-

एक दिन की बात है, भगवान शिव  अपनी पत्नी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे। सभी गंधर्व, किन्नर, ऋषि, मुनि आदि उनकी स्तुति कर रहे थे। अचानक माँ पार्वती ने  शिवजी से पूछा, " हे महेश्वर,   मैं सौभाग्य शाली हूँ कि मुझे आप जैसे पति मिले, हे स्वामी, क्या मैं जान सकती हूँ कि मैंने ऐसे कौनसे कर्म या पुण्य किए कि आप जैसे पति मुझे प्राप्त हुए। " शिवजी बोले, " हे प्राणप्रिये, तुमने एक अत्यंत ही उत्तम एवं कठिन व्रत किया था, वह अत्यंत गुप्त व्रत है, पर तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करना मेरा कर्तव्य है इसलिए उसका वृतांत मैं तुम्हे बताता हूँ। " शिवजी आगे बोले, " हे प्रिये, यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तीज को किया जाता है। इसे हरतालिका तीज का व्रत कहते हैं। यह सभी व्रतों में श्रेष्ठतम व्रत है। यदि उस दिन हस्त नक्षत्र हो तो इसकी श्रेष्ठता और बढ़ जाती है। माँ पार्वती बोली, " हे प्रभु, इस व्रत के बारे में मुझे विस्तारपूर्वक बताने की अनुकम्पा करें। "
भगवान बोले - भारतवर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत है, उसके राजा का नाम हिमांचल था। वहां तुम रानी मैना की कोख से उत्पन्न हुई थी। बाल्यकाल से ही तुमने ईश्वर आराधना करना प्रारम्भ कर दिया था।  बाद में तुमने मेरे बारे में जानने के बाद मुझे पाने के लिए अपनी सहेली के साथ जाकर गुफाओं में रहकर घोर तपस्या की। तुमने ग्रीष्म ऋतू में तपती चट्टानों पर बैठकर, वर्षा  ऋतू के घनघोर बरसते पानी में भीगते हुए, हिम ऋतू में बर्फीले तूफानी थपेड़ों को झेलते हुए तपस्या की। प्रारम्भ में तुमने फलों का सेवन किया, बाद में तुम केवल सूखे पत्तों और अंत में केवल वायु का सेवन किया। तुमने  शरीर को अत्यंत क्षीण कर लिया। तुम्हारी यह स्थिति देखकर तुम्हारे पिता को चिंता होने लगी। उनकी चिंता को जानकार नारद ऋषि राजा के पास पहुंचे। राजा ने उनका स्वागत सत्कार किया। नारदजी ने बताया , " हे हिमालय नरेश, मुझे बैकुंठवासी भगवान श्री विष्णु ने आपके पास भेजा है। वे आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं।  क्या आपको स्वीकार है?"
इसे राजा ने अपना और पुत्री का सौभाग्य मानते हुए स्वीकृति दे दी। यह समाचार नारदजी ने  भगवान विष्णु को तथा राजा ने अपने पुत्री उमा को सुनाया। यह जानकर उमा को बहुत दुःख हुआ,  अपनी सहेली से कहा  कि  वह तो शिवजी को वरण करना चाहती है। इस पर सहेली उमा को एक अनजान गहरी गुफा में ले गई।  राजा चिंतित हो उठा कि  उमा कहाँ विलोपित हो गई। अब वे भगवान विष्णु को क्या उत्तर देंगे। राजा अपने  वचन का पालन न कर पाने के भय के कारण मूर्छित हो गए। मूर्छा टूटने पर उन्होंने सोचा कि कहीं  उनकी पुत्री के साथ कोई अनहोनी न हो गई हो। 
भगवान शिवजी आगे बोले - जब तुम्हारे पिता तुम्हे खोज रहे थे तुम कठोर तपस्या में लीन थीं। तुमने वहाँ नदी में बालू से लिंग स्थापित किया और वन में उपलब्ध पत्तों, पुष्पों और फलों से पूजा-अर्चना करने लगीं। उस दिन भाद्रपद मॉस के शुक्ल पक्ष की तृतीया थी तथा हस्त नक्षत्र भी था। कठोर तप से मेरा सिंहासन डॉल उठा, मैं तुम्हारे सामने प्रगट हुआ।  मैंने पूछा, " हे देवी, तुम क्यों इतना कठोर तप कर रही हो, तुम्हारी इच्छा क्या है? अपने मन की बात मुझसे कहो। "
तब तुमने स्त्री सुलभ लज्जा  के साथ कहा, " हे प्रभो, आप तो अन्तर्यामी हैं, मेरे मन की बात आपसे छुपी नहीं है, मैं आपको अपने पति रूप में वरण करना चाहती हूँ। "
मैं तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गया। उसके बाद तुम बालू निर्मित लिंग को जब नदी में विसर्जित कर रही थी तभी तुम्हारे पिता भी वहाँ पहुंच गए। राजा ने तुम्हे अपने गले  लगा कर पूछा, " हे पुत्री, तुम इस भयानक वन में क्या कर रही हो, चलो घर चलो। " तुमने अपने  पिता से कहा, " मैं सदाशिव से विवाह करना चाहती हूँ पर आपने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है इसलिए मैं नहीं  सकती। " तब तुम्हारे पिता ने कहा, " पुत्री, चिंता मत करो, मैं तुम्हारा विवाह सदाशिव से ही करूंगा " इस वचन के कारण  विवाह मेरे साथ हो गया। हे देवी तुम्हारी सहेली ने तुम्हारा हरण कर  गुफा में रखा और व्रत कराया इस लिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा।
अपने पति भगवान शिवजी से व्रत के बारे में सुनने के बाद माँ पार्वती बोलीं, " हे देव, कृपया आप मुझे  इस पावन व्रत की  विधि और   फल के बारे में भी बताएं। "
इस  पर शिवजी ने व्रत   की सम्पूर्ण विधि  को विस्तारपूर्वक बताया। उन्होंने बताया , " हे उमा, इस व्रत को करने से नारियां सौभाग्यवती, पुत्रवती, धन-सम्पदा युक्त होकर सुखी जीवन को प्राप्त करती है। कन्याएं इस व्रत को करने से मनोवांछित सुयोग्य पति को प्राप्त करती है। जो नारी व्रत रखने के बाद चोरी से अन्न खाती है वह अगले जन्म में शुकरी, जो फल खाती है वह बंदरिया,  दूध पीती है वह सर्पिणी, जो पानी पीती है वह जोंक, जो मांस खाती है वह बाघिन, जो दही खाती है वह बिल्ली, जो मिठाई खाती है वह चींटी,  जो सब चीजें खाती  है वह मक्खी, जो रात्री जागरण नहीं करके सोती है वह अजगरी, जो पति को धोखा देती है वह मुर्गी का जन्म लेती है। हे उमा जो इस व्रत को पूर्ण विधि विधान से करती है वह मुझसा भोला पति पाती है तथा अगले जन्म में तुम्हारे सामान रूपवान हो कर संसार के सभी उत्तम सुखों को प्राप्त करती है।

अनुकरणीय सन्देश :-

  • कन्या संकल्पित होकर अच्छा मनचाहा व्रत प्राप्त कर सकती है।
  • संकल्प को छोड़ देने अथवा धोखा देने का फल अच्छा नहीं होता है।

गणपति की कथा : -

एक गांव में एक स्वाभिमानी निर्धन वृद्धा रहती थी। उसका पति किसी असाध्य रोग से पीड़ित था। वह किसी से मदद नहीं लेती थी। वह दिन-रात परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करती थी। एक दिन जंगल में वह लकड़ी बीनने गई। दिनभर सूखी लकड़ी इकट्ठी कर गट्ठर बनाकर सर पर रखने लगी तो वह नहीं उठा सकी। परेशानी में उसके मुंह से निकल गया , " हे गणेशजी महाराज इससे तो मौत भली। " उसकी यह बात सुनकर गणेशजी यमदूत का रूप धर कर आ पहुंचे। साक्षात मौत को सामने देखकर वृद्धा ने घबराकर गट्ठर उठाकर सर पर रख लिया और बोल पड़ी, " मुझे अभी नहीं मरना। मेरे रोगग्रस्त पति की देखभाल की जिम्मेदारी मुझ पर है। अभी मुझे छोड़ दो।" गणेशजी वहां से चले गए। गणेशजी ने वृद्धा को यह अहसास करा दिया कि जीवन से भागना समस्या का समाधान नहीं है।
  हे गणेशजी जैसी सीख वृद्धा को दी वैसी ही सबको देना। 
अनुकरणीय सन्देश :- 
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर उनका सामना करना और अपने कर्म करते रहना ही मानव का धर्म है।










बुधवार, 11 जून 2014

Puja, wrat, upwas, kathayen aur unake sandesh - waibhaw lakshmi wrat katha
पूजा, व्रत, उपवास, कथाएं और उनके सन्देश - वैभव लक्ष्मी व्रत कथा
पूजन विधि:- 

  • यह व्रत शुक्रवार को किया जाता है.
  • व्रत प्रारम्भ करने से पहले ही 11 या 21 व्रत करने का संकल्प लिया जाता है.
  • व्रत लगातार करना श्रेष्ठ होता है लेकिन किसी कारण से व्यवधान आने पर संकल्पित संख्या के व्रत अवश्य करने चाहियें.
  • पूजा करने से पूर्व स्नान, प्राणायाम एवं ध्यान अवश्य करें.
  • गणपति की स्थापना एवं पूजा करें.
  • जैसे अन्य पूजा की जाती है वैसे ही चावल पर महालक्ष्मी के चित्र और श्रीयंत्र(यदि हो तो ) विराजित कर पूजा करें.
  • पूजा के पश्चात कथा कहें.
  • अंतिम शुक्रवार को उजवन करें. 11 कन्याओं को भोजन कराएं. भोजन में चावल की खीर अवश्य हो.

वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा 

एक बड़ा नगर था. उसमें शीला अपने पति के साथ रहती थी. दोनों ही संतोषी, विवेकी, सुशील, ईमानदार और धार्मिक प्रवृति के थे. ये परनिंदा में कभी भी सम्मिलित नहीं होते थे. उनकी आदर्श गृहस्थी की सभी प्रशंसा करते थे. परन्तु अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के  फलस्वरूप शीला का पति गलत संगत में पड़ गया और नशा, जुंवा आदि करने से उसकी हालत भिखारियों जैसी हो गई. वह शीला के साथ भी दुर्व्यवहार करने लग गया.
   शीला को भगवान् पर अगाध श्रद्धा थी. वो अपने ईश्वर के भरोसे सब कुछ सहन करती रही. वह प्रभु भक्ति में और अधिक समय देने लगी. एक दिन किसी के द्वारा घर का दरवाजा खटखटाए जाने पर उसने खोला तो देखा कि एक अलौकिक आभा युक्त वृद्धा खडी हुई थी. उसने चरणस्पर्श करते हुए  उन्हें आमंत्रित कर दरी पर बैठाया. वृद्धा ने कहा , " बेटी शीला , ऐसा लगता है कि तुमने मुझे पहचाना नहीं." शीला ने कहा, " माताश्री, ऐसा लगता है जैसे कि मैं आपको जानती तो हूँ पर क्षमा करें पहचान नहीं  पा रही हूँ."
   "अरे पगली, अपन प्रति शुक्रवार को महालक्ष्मी के मंदिर में होने वाले भजन-कीर्तन में मिलते तो हैं." वृद्धा ने उसके सर पर हाथ फिराते हुए स्नेहभरी मुस्कराहट के साथ कहा. परन्तु फिर भी शीला को कुछ याद नहीं आया.
शीला के चहरे के भावों को देखते हुए वृद्धा बोली," बहुत दिनों से तू दिखाई नही दी तो मैं तेरे हाल चाल पूछने चली आई."
सात्वना भरे शब्दों से  शीला का धीरज टूट गया और उसने सारी आपबीती सुनादी. सब सुनाने के बाद वृद्धा बोली, " इस या उस जन्म के फल बहुत भुगत लिए अब तेरे अच्छे दिन आने वाले हैं. तू वैभव लक्ष्मी का व्रत कर." उन्होंने व्रत की पूरी विधि बतादी.
  सब सुनकर शीला ने आँखे बंद कर संकल्प लिया  कि वह पुरे 21 शुक्रवार तक व्रत करेगी. जब आँखें खोली तो सामने वृद्धा नहीं दिखाई दी. वह वृद्धा और कोई नही साक्षात महालक्ष्मी थी इसलिए वे अंतर्ध्यान हो गई. अगले दिन शुक्रवार था. उसी दिन से शीला ने व्रत करना प्रारम्भ कर दिए. पहले ही दिन जब पुरे विधिविधान से व्रत करने के बाद उसने प्रसाद अपने पति को दिया तो उसके पति के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दिया. उसके पति ने उस दिन उस पर हाथ नहीं उठाया. 21 वे शुक्रवार को उसने बताये गए तरीके से उजवन किया. उसने महालक्ष्मी की तस्वीर को प्रणाम कर मन ही मन प्रार्थना की कि हे माँ मैंने इस व्रत का संकल्प लिया था जो आज पूरा हुआ. हे माँ मेरी मनोकामना पूरी करना. व्रत की अवधी के दौरान शीला के पति की आदतों में भी बदलाव आता गया था. परिणामस्वरूप उसका काम धंधा अच्छा चल निकला और सारा वैभव पुन; लौट आया.
  हे लक्ष्मी माता जैसे तूने शीला को वैभव दिया वैसे सभी को देना.
अनुकरणीय सन्देश :-

  • बुरे कर्मों का फल अच्छा नहीं होता है.
  • दृढ संकल्प के साथ किए गए कार्य में अवश्य ही सफलता मिलती है.
  • प्रयास करने से अच्छे दिन अवश्य आते हैं.

गणेशजी की कथा 
एक गाँव में तीन मित्र रहते थे. वे गणेशजी के पक्के भक्त थे. एक दिन गणेशजी ने यह जानने के लिए कि कौन श्रेष्ठ भक्त है उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया. उन्होंने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर उन तीनों से भेंट की. उन्होंने तीनों को एक एक थाली देकर कहा कि यह हर व्यक्ति की भूख शांत करने की क्षमता रखती है.
तुम भूखों की भूख मिटाने के लिए इसका उपयोग कर सकते हो. यह कह कर वे चले गए.
 दो मित्र दो अलग अलग स्थानों पर जाकर बैठ गए. जो भी उधर से निकला उसको उन्होंने भरपेट भोजन कराया. तीसरा  मित्र वह थाली लेकर जगह जगह घुमाता रहा और जो भी भूखा मिला उसको भोजन कराया. दूसरे दिन वृद्ध रूपी गणेशजी पुनः उन तीनों मित्रों से मिले और उनसे थाली का उपयोग कैसे किया ये पूछा. तीनों की बात सुनने के बाद गणेशजी अपने असली रूप  में आ गए और बोले कि तीसरा व्यक्ति ही मेरा सच्चा भक्त है अतः इसे मैं वर माँगने के लिए कहता हूँ. तीसरे मित्र ने कहा, " हे भगवन मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए
मैं तो बस इतना ही चाहता हूँ कि मेरे द्वार से कोई भी भूखा न जाए. गणेशजी ने कहा जा दिया. तीसरा व्यक्ति जीवन भर लोगों की मदद करता रहा.
  हे गणेशजी महाराज तीसरे मित्र जैसा ही मन और क्षमता सब को देना ताकि कोई भी भूखा न सोए.
अनुकरणीय सन्देश :- 
सच्ची सेवा का फल सदैव अच्छा होता है.
 




मंगलवार, 10 जून 2014

puja, wrat, upwas, kathaey aur unake sandesh - Maahi Chauth(Til Chauth)

पूजा, व्रत, उपवास, कथा और उनके सन्देश - माही चौथ (तिल चौथ)


पूजन विधि :-  जैसे प्रत्येक चौथ की पूजा होती है वैसे ही करना है.

माही चौथ की कथा :-

एक साहूकार-साहुकारनी थे . उनके संतान नहीं हो रही थी. एक दिन साहुकारनी ने पड़ोसन को माही चौथ का व्रत करते देखा. पड़ोसन से व्रत का माहात्म्य पूछकर उसने कहा "यदि मेरे  गर्भ ठहर गया तो मैं चौथ का व्रत रखूंगी और   सवा सेर का तिलकुट चढ़ा दूंगी". पुत्र हो गया तो बोली कि बेटे का विवाह हो जाएगा तब व्रत भी करुँगी और तिलकुट भी चढ़ा दूंगी. चौथमाता ने सोचा कि यह महिला तो बड़ी चालाक है, अपनी बात को टालते जा रही है, मुझे ही मुरख बना रही है.इसको सीख देना जरूरी है अन्यथा यह लोगों को ऐसे ही मुर्ख बनाती रहेगी. समय बिता. विवाह का दिन भी आ गया. फैरे होने लगे. तीसरे फैरे के बाद चौथ माता ने अपने प्रभाव से दुल्हा बने बेटे को उठाकर एक बड़े पीपल के पेड़ पर बिठा दिया. कई दिनों तक दुल्हे की खोज होती रही पर वह नहीं मिला. जब गणगौर आई तो युवतियां पीपल के पेड़ के नीचे दूब लेने को जाती. पेड़ पर बैठा दुल्हा एक युवती से हमेशा एक ही बात बोलता,  " आ मेरी अधब्याहेडी(अर्धविवाहित)". यह बात बार बार सुनकर वह युवती डर के मारे दुबली होने लग गई. एक दिन उसकी माँ बोली, " मैं तुझको इतना खाने को देती हूँ , फिर भी तू क्यों सूखी जा रही है. तब उसने माँ को बताया कि दुल्हे की पोशाक में पेड़ पर बैठा एक युवक मुझसे रोज कहता है कि आ मेरी अधब्याहेडी. यह सुनकर उसकी माँ ने वहां जाकर देखा औए बोली,  'अरे बावली वो तो तेरा दुल्हा ही है.  ' माँ ने उससे पूछा , " जमाईसा, आप वहां क्या कर रहे हो?" दुल्हा बोला, " ये सब मेरी माँ की करनी का फल मैं भुगत रहा हूँ, मैं यहाँ चौथ माता के रहन पड़ा हुआ हूँ. मेरी माँ बहुत चालाक है, उसने चौथ माता का व्रत करने का वादा किया था पर उसे पूरा नहीं किया. सबक सिखाने के लिए माता मुझे उठा लाइ और यहाँ लटका दिया." युवती की माँ युवक की माँ के पास गई और सारी बात बताई. साहुकारनी बोली,  " है माता, मुझे माफ़ करदो, मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई, मैं तेरा व्रत भी रखूंगी और ढाई मन का तिलकुट करुँगी. मुझे मेरा लाल लौटा दे." चौथ माता को तो सबक सिखाना था, इसलिए उसने दुल्हे को लौटा दिया. फैरे पड़े, धूमधाम से विवाह हो गया. इस बार साहुकारानी ने गलती नहीं की और पूरी श्रद्धा के साथ व्रत किया और तिलकुट चढ़ाया.
है चौथ माता जैसे साहुकारनी  को बेटा दिया और  बेटे-बहु को मिलाया उसी प्रकार सबको बेटे-बहु दे.
अनुकरणीय सन्देश : -
अपने वचनों पर कायम रहें.
चालाकी न करें.
गणेशजी की कथा :-
एक जेठानी-देवरानी थी. देवरानी धनवान और जेठानी बहुत गरीब थी. जेठानी, देवरानी के घर पर नौकरानी के जैसे काम करती थी. वहां पर वह जिस कपडे से आटा छानती थी उसे घर ले जाकर पानी में धोती थी और वह पानी अपने पति को पीने के लिए देती थी. एक दिन देवरानी के बच्चों ने अपनी ताईजी को यह करते देखा लिया. उन्होंने जाकर अपनी माँ से बता दिया. यह जानकर देवरानी को बहुत गुस्सा आया. अगले दिन जेठानी आई तो देवरानी उससे बोली , " तुम आटा छानने का कपड़ा यहीं छोड़कर तथा हाथ धोकर घर जाओगी." बेचारी जेठानी ने ऐसे ही किया. घर जाने पर उसके पति ने आटे का घोल माँगा. उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी. उसके निखट्टू पति ने गुस्से में आकर लकड़ी से जोर से  मारा. जेठानी गणेशजी की भक्त थी. वह गणेशजी को याद करती हुई सो गई. गणेशजी उसके दुःख को जानते थे. उन्होंने सपने में  आकर पूछा तो उसने सारी बात बतादी. गणेशजी ने कहा कि मैं कई जगह तिलकुट खाकर आ रहा हूँ इसलिए निपटने की इच्छा हो रही है कहाँ जाऊं. जेठानी ने कहा," तूने मुझे कुछ तो दिया ही नहीं है, घर में रखा ही क्या है, सारा घर आँगन खाली पड़ा है तेरी मर्जी हो वहीँ बैठ जा". गणेशजी ने जहाँ जहाँ  मरजी पड़ी वहां वहां अपना काम कर दिया. फिर पूछा, " तेरे घर में तो पानी भी नहीं हैं अब पोंछनी भी तो है".  जेठानी ने तंग होकर कहा, " मेरे सर के बालों से पोंछ ले." गणेशजी ने ऐसे ही किया. सुबह जब जेठानी की नींद खुली तो  देखा कि सारे घर में सोना -चांदी, हीरे जवाहरात बिखरे पड़े हैं. हीरे जवाहरात समेटने में देर हो गई. देवरानी ने देखने के लिए बच्चों को भेजा. बच्चों ने लौटकर सारी बात बताई. देवरानी दौड़ी-दौड़ी जेठानी के घर पहुंची. इतनी सारी दौलत देखकर देवरानी की आँखे फटी की फटी रह गई. उसने पूछा तो जेठानी से सारी बात सच सच बता दी. वो दौड़ी दौड़ी घर पहुंची और अपने पति से पटिए से मारने के लिए कहा. पति ने कहा अरे मुर्ख पैसे की भूख में क्यों मार खाना चाहती है? वह नहीं मानी तो पति को गुस्सा आगया और उसने अच्छे से ठुकाई करदी. उसने सारा घर खाली कर दिया और गणेशजी का नाम लेकर सो गई. सपने में गणेशजी आये. सारी बाते उसी तरीके से हुई. सुबह जब देवरानी उठी तो सारे घर में गन्दगी का साम्राज्य था. भयंकर दुर्गन्ध से घर भरा हुआ था. बालों में भी गन्दगी लिपटी हुई थी. उसने गणेशजी को याद किया. गणेशजी प्रगट हुए. देवरानी बोली तूने मुझे धोखा दिया है. गणेशजी ने कहा तूने तो धनदौलत के लालच में झुंट की मार खाई, जबकि उसने धर्म की रक्षा में मार खाई. उसने कहा आप अपनी माया समेट लो. गणेशजी ने कहा की तू अपनी जायदाद का आधा भाग जेठानी को दे दे तथा उससे नौकरानी की तरह काम लेने के लिए माफ़ी मांग ले तो मैं अपनी माया समेट लूँगा. देवरानी ने  वचन दिया तो गणेशजी ने अपनी माया को समेट लिया.
हे गणेशजी महाराज जैसा तुमने जेठानी को दिया वैसा ही सबको देना और देवरानी जैसा किसी को मत देना.

अनुकरणीय सन्देश :-


  • अपने से बड़े सम्बन्धी को नौकर की तरह नहीं रखें.
  • दुसरे की नक़ल नहीं करे.
  • लालच नहीं करे.
  • धर्म और सच्चे मार्ग पर चलने वाले को अच्छा फल अवश्य मिलता है भले ही देर हो जाए.