रविवार, 15 जून 2014

puja, wrat, upwas, kathaye aur unake sandesh - Hartalika wrat

हरतालिका व्रत कथा 

पूजन विधि : -

भगवान शिव के मुख से पार्वती को बताई गई पूजन विधि पर आधारित -
  •  हरतालिका  व्रत सौभाग्यवती महिला और अच्छे  पति की चाह रखने वाली कन्याएं करती है।
  • हरतालिका व्रत भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के सांयकाल को प्रारम्भ कर तृतीया की रात तक किया जाता है। यह व्रत निराहार और निर्जला रहकर किया जाता है।
  •  पूजा से पूर्व नित्यानुसार स्नान, प्राणायाम एवं ध्यान करें।
  • बालू(रेत) से भगवान शिव का लिंग बनाकर तथा शिव-पार्वती की मूर्ति का पूजन शास्त्र सम्मत विधि से जैसे अन्य  पूजा की जाती  है वैसे ही  करना चाहिए।   ॐ नमः शिवाय मंत्र के साथ108 बार बिल्वपत्र चढ़ाना चाहिए। इस दिन सभी प्रकार के पुष्प-पल्लव चढ़ाने चाहिए। अंत में शिव आरती करने  के बाद दोनों हाथों से पुष्पांजली अर्पित करनी चाहिए। इस अवधि  में कम से कम तीन बार पूजा करने का विधान है। चतुर्थी  दिन बालू से निर्मित शिव लिंग का नदी में विसर्जन करना चाहिए। 
  • पूजा समाप्ति पर तीन ब्राह्मणों को भोजन कराके दक्षिणा देनी चाहिए। यदि भोजन कराना सम्भव न  हो तो भोजन सामग्री भिजवाई जा सकती है या फिर इस  निमित्त दक्षिणा के साथ अतिरक्त    और दे देनी चाहिए। यदि यह सब कुछ भी परिस्थियोंवश किया जाना  सम्भव न हो तो किसी मंदिर में श्रद्धानुसार राशी भेंट कर देनी चाहिए। 
  • कथा कहें।
  • सासुजी, बहिन, बेटी का बायणा  निकाले और उनके चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें या उनके घर पहुँचा दें। 
  • हरतालिका व्रत खोलें अर्थात भोजन करें।

हरतालिका व्रत कथा :-

एक दिन की बात है, भगवान शिव  अपनी पत्नी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे। सभी गंधर्व, किन्नर, ऋषि, मुनि आदि उनकी स्तुति कर रहे थे। अचानक माँ पार्वती ने  शिवजी से पूछा, " हे महेश्वर,   मैं सौभाग्य शाली हूँ कि मुझे आप जैसे पति मिले, हे स्वामी, क्या मैं जान सकती हूँ कि मैंने ऐसे कौनसे कर्म या पुण्य किए कि आप जैसे पति मुझे प्राप्त हुए। " शिवजी बोले, " हे प्राणप्रिये, तुमने एक अत्यंत ही उत्तम एवं कठिन व्रत किया था, वह अत्यंत गुप्त व्रत है, पर तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करना मेरा कर्तव्य है इसलिए उसका वृतांत मैं तुम्हे बताता हूँ। " शिवजी आगे बोले, " हे प्रिये, यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तीज को किया जाता है। इसे हरतालिका तीज का व्रत कहते हैं। यह सभी व्रतों में श्रेष्ठतम व्रत है। यदि उस दिन हस्त नक्षत्र हो तो इसकी श्रेष्ठता और बढ़ जाती है। माँ पार्वती बोली, " हे प्रभु, इस व्रत के बारे में मुझे विस्तारपूर्वक बताने की अनुकम्पा करें। "
भगवान बोले - भारतवर्ष के उत्तर में हिमालय पर्वत है, उसके राजा का नाम हिमांचल था। वहां तुम रानी मैना की कोख से उत्पन्न हुई थी। बाल्यकाल से ही तुमने ईश्वर आराधना करना प्रारम्भ कर दिया था।  बाद में तुमने मेरे बारे में जानने के बाद मुझे पाने के लिए अपनी सहेली के साथ जाकर गुफाओं में रहकर घोर तपस्या की। तुमने ग्रीष्म ऋतू में तपती चट्टानों पर बैठकर, वर्षा  ऋतू के घनघोर बरसते पानी में भीगते हुए, हिम ऋतू में बर्फीले तूफानी थपेड़ों को झेलते हुए तपस्या की। प्रारम्भ में तुमने फलों का सेवन किया, बाद में तुम केवल सूखे पत्तों और अंत में केवल वायु का सेवन किया। तुमने  शरीर को अत्यंत क्षीण कर लिया। तुम्हारी यह स्थिति देखकर तुम्हारे पिता को चिंता होने लगी। उनकी चिंता को जानकार नारद ऋषि राजा के पास पहुंचे। राजा ने उनका स्वागत सत्कार किया। नारदजी ने बताया , " हे हिमालय नरेश, मुझे बैकुंठवासी भगवान श्री विष्णु ने आपके पास भेजा है। वे आपकी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं।  क्या आपको स्वीकार है?"
इसे राजा ने अपना और पुत्री का सौभाग्य मानते हुए स्वीकृति दे दी। यह समाचार नारदजी ने  भगवान विष्णु को तथा राजा ने अपने पुत्री उमा को सुनाया। यह जानकर उमा को बहुत दुःख हुआ,  अपनी सहेली से कहा  कि  वह तो शिवजी को वरण करना चाहती है। इस पर सहेली उमा को एक अनजान गहरी गुफा में ले गई।  राजा चिंतित हो उठा कि  उमा कहाँ विलोपित हो गई। अब वे भगवान विष्णु को क्या उत्तर देंगे। राजा अपने  वचन का पालन न कर पाने के भय के कारण मूर्छित हो गए। मूर्छा टूटने पर उन्होंने सोचा कि कहीं  उनकी पुत्री के साथ कोई अनहोनी न हो गई हो। 
भगवान शिवजी आगे बोले - जब तुम्हारे पिता तुम्हे खोज रहे थे तुम कठोर तपस्या में लीन थीं। तुमने वहाँ नदी में बालू से लिंग स्थापित किया और वन में उपलब्ध पत्तों, पुष्पों और फलों से पूजा-अर्चना करने लगीं। उस दिन भाद्रपद मॉस के शुक्ल पक्ष की तृतीया थी तथा हस्त नक्षत्र भी था। कठोर तप से मेरा सिंहासन डॉल उठा, मैं तुम्हारे सामने प्रगट हुआ।  मैंने पूछा, " हे देवी, तुम क्यों इतना कठोर तप कर रही हो, तुम्हारी इच्छा क्या है? अपने मन की बात मुझसे कहो। "
तब तुमने स्त्री सुलभ लज्जा  के साथ कहा, " हे प्रभो, आप तो अन्तर्यामी हैं, मेरे मन की बात आपसे छुपी नहीं है, मैं आपको अपने पति रूप में वरण करना चाहती हूँ। "
मैं तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गया। उसके बाद तुम बालू निर्मित लिंग को जब नदी में विसर्जित कर रही थी तभी तुम्हारे पिता भी वहाँ पहुंच गए। राजा ने तुम्हे अपने गले  लगा कर पूछा, " हे पुत्री, तुम इस भयानक वन में क्या कर रही हो, चलो घर चलो। " तुमने अपने  पिता से कहा, " मैं सदाशिव से विवाह करना चाहती हूँ पर आपने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है इसलिए मैं नहीं  सकती। " तब तुम्हारे पिता ने कहा, " पुत्री, चिंता मत करो, मैं तुम्हारा विवाह सदाशिव से ही करूंगा " इस वचन के कारण  विवाह मेरे साथ हो गया। हे देवी तुम्हारी सहेली ने तुम्हारा हरण कर  गुफा में रखा और व्रत कराया इस लिए इस व्रत का नाम हरतालिका व्रत पड़ा।
अपने पति भगवान शिवजी से व्रत के बारे में सुनने के बाद माँ पार्वती बोलीं, " हे देव, कृपया आप मुझे  इस पावन व्रत की  विधि और   फल के बारे में भी बताएं। "
इस  पर शिवजी ने व्रत   की सम्पूर्ण विधि  को विस्तारपूर्वक बताया। उन्होंने बताया , " हे उमा, इस व्रत को करने से नारियां सौभाग्यवती, पुत्रवती, धन-सम्पदा युक्त होकर सुखी जीवन को प्राप्त करती है। कन्याएं इस व्रत को करने से मनोवांछित सुयोग्य पति को प्राप्त करती है। जो नारी व्रत रखने के बाद चोरी से अन्न खाती है वह अगले जन्म में शुकरी, जो फल खाती है वह बंदरिया,  दूध पीती है वह सर्पिणी, जो पानी पीती है वह जोंक, जो मांस खाती है वह बाघिन, जो दही खाती है वह बिल्ली, जो मिठाई खाती है वह चींटी,  जो सब चीजें खाती  है वह मक्खी, जो रात्री जागरण नहीं करके सोती है वह अजगरी, जो पति को धोखा देती है वह मुर्गी का जन्म लेती है। हे उमा जो इस व्रत को पूर्ण विधि विधान से करती है वह मुझसा भोला पति पाती है तथा अगले जन्म में तुम्हारे सामान रूपवान हो कर संसार के सभी उत्तम सुखों को प्राप्त करती है।

अनुकरणीय सन्देश :-

  • कन्या संकल्पित होकर अच्छा मनचाहा व्रत प्राप्त कर सकती है।
  • संकल्प को छोड़ देने अथवा धोखा देने का फल अच्छा नहीं होता है।

गणपति की कथा : -

एक गांव में एक स्वाभिमानी निर्धन वृद्धा रहती थी। उसका पति किसी असाध्य रोग से पीड़ित था। वह किसी से मदद नहीं लेती थी। वह दिन-रात परिश्रम करके अपना भरण-पोषण करती थी। एक दिन जंगल में वह लकड़ी बीनने गई। दिनभर सूखी लकड़ी इकट्ठी कर गट्ठर बनाकर सर पर रखने लगी तो वह नहीं उठा सकी। परेशानी में उसके मुंह से निकल गया , " हे गणेशजी महाराज इससे तो मौत भली। " उसकी यह बात सुनकर गणेशजी यमदूत का रूप धर कर आ पहुंचे। साक्षात मौत को सामने देखकर वृद्धा ने घबराकर गट्ठर उठाकर सर पर रख लिया और बोल पड़ी, " मुझे अभी नहीं मरना। मेरे रोगग्रस्त पति की देखभाल की जिम्मेदारी मुझ पर है। अभी मुझे छोड़ दो।" गणेशजी वहां से चले गए। गणेशजी ने वृद्धा को यह अहसास करा दिया कि जीवन से भागना समस्या का समाधान नहीं है।
  हे गणेशजी जैसी सीख वृद्धा को दी वैसी ही सबको देना। 
अनुकरणीय सन्देश :- 
जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर उनका सामना करना और अपने कर्म करते रहना ही मानव का धर्म है।










कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें