श्रीगणेश चतुर्थीव्रत - पौराणिक माहात्म्य (चौथ माता)
- चतुर्थी व्रत को सामान्यतः चौथ माता के व्रत के रूप में जाना जाता है।
- इस ब्लॉग में चौथमाता व्रत के सम्बन्ध में प्रचलित कथाएँ पहले की पोस्ट में दी गईं हैं।
- वस्तुतः वे कथाएं श्रीगणेशचतुर्थी व्रत के महत्व को स्पष्ट करने के लिए सामान्य जन की सरल समझ को ध्यान में रख कर लिखी गई हैं अथवा कही जाती हैं।
- इस कथा में चतुर्थी तिथि की श्रेष्ठता को रेखांकित किया गया है। इस तिथि को सभी तिथियों की माता मन गया है इसीलिए इसे चौथ माता कहा जाता है।
- यह एक लम्बी कथा है पर यहाँ इसको संक्षेप में देने का प्रयास किया गया है।
- शिवपुराण की कथा -
जब भगवान शिव ने त्रिशूल से पार्वतीनन्दन का मस्तक धड़ से पृथक कर दिया तो माता पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गई। उन्होंने अनेक शक्तियों को उत्पन्न कर उन्हें प्रलय मचाने की आज्ञा दी। सर्वत्र संहार प्रारम्भ हो जाने से देवताओं ने माता को शांत करने के लिए एक गज शिशु का सिर लाकर धड़ पर लगा दिया। कुपित माता को प्रसन्न करने के लिए भगवान शंकर ने अपने तेज से उस बालक को जीवित कर दिया। प्रसन्न माता को और अधिक प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश और उपस्थित देवताओं आदि ने उस बालक को 'सर्वाध्यक्ष ' घोषित कर दिया।
भगवन आशुतोष ने अपने पुत्र को वरदान देते हुए कहा , " विघ्ननाशक के रूप में तेरा नाम सर्वश्रेष्ठ होगा। गणेश्वर, तू भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रोदय के शुभ समय पर जन्मा है, उस समय रात्रि का प्रथम प्रहर जा रहा था। इसलिए प्रतिमास इस तिथि को भक्तिपूर्वक तेरी पूजा और व्रत करना चाहिए। यह व्रत परम शुभ तथा सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला होगा। "
शिवजी आगे बोले ," ये व्रत सभी वर्ण के लोगों को करना चाहिए। विशेषकर स्त्रियों और राजा को अवश्य करना चाहिए। व्रतकर्ता की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण होती हैं। "
गणेशपुराण की कथा
माता पार्वती ने गणेशजी का एकाक्षरी मन्त्र से जप करते हुए बारह वर्षों तक कठोर तप किया। इससे संतुष्ट होकर गुणवल्लभ गुणेश ने पार्वती जी के समक्ष प्रकट होकर उनके पुत्र के रूप में अवतरित होने का वचन दिया। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के मध्यान्ह काल के समय जिस दिन चंद्रवार, स्वाति नक्षत्र एवं सिंह लग्न था, पांच शुभ गृह एक साथ थे, उस समय माता पार्वती ने गणेश जी की पूर्ण विधि विधान से पूजा की जिससे श्री गणेशजी पुत्र रूप में प्रकट हुए। भगवान गणेशजी के प्रकट होने की तिथि होने से यह तिथि वरदा तिथि के नाम से प्रसिद्द है। वरदा का अर्थ है वर दायिनी।
मुद्गल पुराण की कथा
परम शक्तिशाली और पराक्रमी लोभासुर के आतंक से दुखी होकर देवताओं ने प्रभु गजानन से लोभासुर से मुक्ति प्रदान करने की प्रार्थना की। गणेशजी ने परम पावन तिथि चतुर्थी को मध्याह्न काल में अवतरित होकर उसका विनाश किया। इस कारण यह तिथि अत्यंत प्रीतिदायिनी हुई।
तिथियों की माता चतुर्थी की कथा
मुद्गल पुराण में चूत माता व्रत की कथा है। अत्यंत संक्षेप में इस कथा को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
लोकपितामह ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना में सहयोग हेतु गणेशजी का ध्यान किया। उससे तिथियों की जननी देवी उत्पन्न हुई जिसके चार पैर, चार हाथ और चार मुख थे।
उस महादेवी ने ब्रह्मा के चरणस्पर्श और वंदना करते हुए कहा, " आप मेरे पिता हैं, मुझे आज्ञा प्रदान करें कि मैं क्या करूँ ?" ब्रह्मा ने गणेशजी का स्मरण कर कहा कि तुम अद्भुत सृष्टि करो। साथ ही श्री गणेशजी का छः अक्षर मंत्र ' वक्रतुंडाय हुम्' दिया।
देवी ने हजारों वर्ष तक इस मन्त्र के साथ गणेशजी का ध्यान करते हुए कठोर तपस्या की। प्रसन्न होकर गणेशजी प्रकट हुए और कहा, " महभागे, मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूँ , तुम वर मांगो। "
गणेशजी के बार बार के आग्रह के बाद देवी ने उनके पावन चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया, "करुणानिधे ! मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति और सृष्टि सृजन की सामर्थ्य प्रदान करें। मैं सदा आपकी प्रिय रहूँ और आपसे विलग न होऊं। " श्री गणेशजी ने कहा, " ॐ तथास्तु, सभी प्रकार फल देने वाली देवी तुम मुझे सदैव प्रिय रहोगी, तुम सभी तिथियों की माता होगी और तुम्हारा नाम चतुर्थी होगा। तुम मेरी जन्म तिथि होओगी। तुम्हारा वाम भाग कृष्ण और दक्षिण भाग शुक्ल होगा। तुम्हारा व्रत करने वाले का मैं सदैव ध्यान रखूँगा और इस व्रत के समान और कोई व्रत नहीं होगा। "
यह कह कर भगवान अंतर्धान हो गए। चतुर्थी माता जैसे ही सृष्टि की रचना प्रारम्भ करने लगी सहसा उनका वाम भाग कृष्ण (काला) और दक्षिण भागशुक्ल ( श्वेत चमकीला ) हो गया। पुनः जैसे ही उन्होंने गणेशजी का ध्यान करते हुए सृष्टि रचना प्रारम्भ की उनके मुख से प्रतिपदा, नासिका से द्वितीया, वक्ष से तृतीया, अंगुली से पंचमी, ह्रदय से षष्टी, नेत्र से सप्तमी, बाहु से अष्टमी, उदर से नवमी, कान से दशमी, कंठ से एकादशी, पैर से द्वादशी, स्तन से त्रयोदशी, अहंकार से चतुर्दशी, मन से पूर्णिमा और जिव्हा से अमावस्या तिथि प्रकट हुई।
चौथ माता और अन्य तिथियों के द्वारा गणेशजी का तप किये जाने पर गणेशजी ने चौथ माता को वर दिया, " शुक्लपक्ष की चतुर्थी के मेरे जो भक्त जन निराहार रहकर तुम्हारा व्रत एवं उपासना करेंगे उनके संचित कर्मों के फल समाप्त हो जाएंगे तथा मैं उनको सब कुछ प्रदान करूँगा। तुम्हारा नाम ' वरदा ' होगा। "
वहाँ से अंतर्धान होकर भगवान गणेशजी ने रात्रि के प्रथम प्रहर में चन्द्रमा के उदित होने पर कृष्ण-चतुर्थी के पास जाकर वर माँगने को कहा। कृष्ण चतुर्थी ने कहा, " हे लम्बोदर, आप मुझे अपनी सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें, मैं सदैव आपकी प्रिय रहूँ, आपसे कभी वियोग न हो और मैं सर्वमान्य रहूँ। "
गणेशजी ने कहा, " हे महातिथे ! तुम मुझे सदा प्रिय रहोगी तथा मेरे से अलग नहीं रहोगी। मेरे प्रसाद से तुम उपवास करने वालों का संकट हरो। उनको तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - सब कुछ प्रदान करोगी। मेरी कृपा से तुम सर्वदा भक्तों को आनन्द प्रदान करोगी। इस दिन उपवास एवं चंद्रोदय के बाद भोजन में श्रावण में लड्डू, भादवे में दही, आश्विन में निराहार, कार्तिक में दूध, मार्गशीर्ष में जल, पौष में गोमूत्र, माघ में स्वेत तिल, फाल्गुन में शक्कर, चित्र में पांच गव्य, वैशाख में कमल गट्टा, ज्येष्ठ में गाय का घी औए आषाढ़ में मधु का सेवन करे तो श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है। "
अनुकरणीय सन्देश
- सम्भवहो तो प्रत्येक माह की दोनों चतुर्थी का व्रत एवं गणेश पूजन करें।
- यदि यह सम्भव न हो तो भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी 'बहुला', कार्तिक-कृष्ण-चतुर्थी 'करका /करवा', और माघ-कृष्ण-चतुर्थी 'तिलका' का व्रत करना चाहिए।
- चतुर्थी का व्रत वैभव प्रदाता, संकट मोचक तथा मोक्ष प्रदाता है।
- उक्त कथा से ऐसा लगता है कि ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।
- अलग अलग माह में भिन्न प्रकार का आहार सुझाया गया है।
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