अनन्तचतुर्दशी व्रत
- भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्तचतुर्दशी कहते हैं।
- अनन्तचतुर्दशी के दिन अनंत भगवान की पूजा की जाती है।
पूजन सामग्री -
कंकु, चावल, लच्छा,मेहंदी, चौकी, अलुने आटे के रोठ, शक्कर, अनन्तसूत्र, कच्चे सूत की कुकड़ी, दूब , गेंहूँ, जल, कलश, पुष्प, थोड़ा सा गोबर आदि।
पूजन विधि -
- पकवान आदि का नैवेद्य लेकर नदी तट पर जाएँ।
- वहां स्नान कर व्रत के लिए निम्न संकलप करें-
- मैं ....... गौत्र ……… अपने समस्त पापों के निवारणार्थ तथा सुख समृद्धि की वृद्धि हेतु श्रीमद् अनंत भगवान की अनुकम्पा पाने के लिए अनन्त व्रत करने का संकल्प लेता हूँ।
- कलश स्थापित कर पूजन करें।
- गणपति की प्रतिष्ठा कर पूजन करें।
- कलश पर शेषशायी भगवान की प्रतिमा रखें ।
- प्रतिमा के सम्मुख चौदह गांठों युक्त केशर आदि में भीगा हुआ अनन्त सूत्र (डोरा) रखें।
- भगवान विष्णु का सम्पूर्ण विधि विधान से नित्यानुसार पूजन करें।
- पूजन के दौरान ॐ अनन्ताय नमः का जाप करते रहें।
- इसके बाद अनन्तसूत्र को पुरुष दाहिनी तथा स्त्री बायीं भुजा में निम्नलिखित मंत्रोच्चारण के साथ बाँध लें।
- मन्त्र - अनन्तसंसार महासमुद्रे, मग्नान समभ्युद्धर वासुदेव।
- अनन्तरूपे विनियोजितात्मा, ह्यनन्तरूपाये नमो नमस्ते।।
- अनन्तसूत्र बंधन के उपरांत ब्राह्मण को भोजन करा एवं दक्षिणा देकर विदा करें और तत्पश्चात घर जाएँ।
- घर पर परिवारजनों के साथ बैठकर भगवान अनंत की संक्षिप्त पूजा कर कथा वाचन करें।
- ( यदि नदी या सरोवर के किनारे जाना सम्भव न हो तो घर पर ही पूजन कर लें। यदि चाहें तो सरोवर के प्रतिक स्वरुप एक चौड़े पात्र में जल भरकर रख सकते हैं। यदि पूजा घर पर ही की जाती है तो दुबारा पूजा करने की आवश्यकता नहीं। प्रतिमा न होने पर कलश के पास तस्वीर रखलें। )
अनन्तचतुर्दशी व्रत की कथा -
द्वापर युग में पांडव वनवास का कष्ट भोग रहे थे। युधिष्ठर और द्रोपदी सहित सभी का कुशल मंगल जानने के लिए भगवान श्री कृष्ण वन में पधारे। वहाँ उन्होंने पांडवों के कष्ट को देखा। युधिष्ठर ने उनका स्वागत करते हुए कहा , " हे भ्राता, मुझे अपने अनुजों और द्रौपदी का दुःख देखा नहीं जाता है कृपया कर इनके दुखों को दूर कर सकूँ ऐसा कोई उपाय बताइये। "
भगवान श्री कृष्ण बोले, " हे ज्येष्ठ, भगवान श्री अनन्त का व्रत करने से समस्त कष्टों का निवारण हो जाता है। "
युधिष्ठर ने पूछा , " हे वासुदेव, कृपया कर इस व्रत को करने की सम्पूर्ण विधि और इसके पीछे की कहानी को बताने का कष्ट करें। "
श्री कृष्ण बोले, " हे धर्मराज सुनो, प्राचीन काल में सुमन्तु नाम के एक वसिष्ठ गौत्रीय मुनि थे। उनका विवाह भृगु ऋषि की पुत्री दीक्षा से हुआ था। उनकी पुत्री का नाम शीला था। पुत्री यथा नाम तथा गुण अत्यंत ही सुशील थी। मुनि ने उसका विवाह कौण्डिन्यमुनि के साथ कर दिया। जब वे विवाह कर पुनः अपने घर लौट रहे थे तो विश्राम के लिए यमुना नदी के तट पर रुके। शीला नदी के तट पर गई तो स्त्रियों को अनन्तव्रत करते देखा। अनन्त व्रत का माहात्म्य जानकार उसने भी व्रत करते हुए अनन्तसूत्र अपनी भुजा में बाँध लिया। घर पर पहुंचने के बाद से अनंत भगवान की कृपा से परिवार की सुख समृद्धि में दिन दूनी रात चैगुनी वृद्धि होने लगी।" श्री कृष्ण ने अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कहा , " हे भ्राता, एक दिन कौडिन्य की दृष्टि पत्नी की भुजा पर बंधे अनन्तसूत्र पर पड़ गई। जिसे देखकर मुनि ने पूछा - 'क्या तुमने मुझे वाश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है ?' शीला ने उत्तर दिया - 'नहीं प्रिय, यह अनन्त भगवान का सूत्र है।' परन्तु ऐश्वर्यमद में चूर मुनि ने क्रोध में आकर अनन्तसूत्र को तोड़कर फैंक दिया। परिणास्वरूप जिस गति से समृद्धि आई थी उससे भी तीव्र गति से उसका ह्रास होने लगा। कष्टों में वृद्धि होने लगी। दीनहीन परिस्थिति हो जाने के कारण वे समाधान जानने के लिए वन में निकल पड़े। मार्ग में जो भी मिलता उससे वे अनन्त भगवान का पता पूछते जाते। किन्तु अंत में निराश होकर प्राण त्यागने के विचार से उन्होंने वृक्ष की शाखा पर फंदा बनाकर लटकने ही जा रहे थे कि उसी समय एक वृद्ध ब्राह्मण ने उनको रोक लिया और कहा - 'चलो, गुफा में तुम्हे अनंत भगवान के दर्शन कराता हूँ। '
जब वे गुफा में पहुंचे तो साक्षात चतुर्भुज स्वरुप भगवान विष्णु के दर्शन हुए। उनको देखकर मुनि भाव विह्वल होकर उनके समक्ष दंडवत होकर क्षमा याचना करने लगे, वे बोले - हे प्रभो, हे करुणा निधान, हे सर्वशक्तिमान, हे सर्वज्ञ आपसे तो कुछ छिपा नहीं हे मुझ अधम से गर्व के वशीभूत होकर आपका अपमान करने का जो अपराध हुआ है उसके लिए मुझे क्षमा करें।'
इस पर भगवान ने कहा - 'सुनो, तुमने जो अनन्तसूत्र का तिरस्कार किया है उसके परिणामस्वरूप तुम्हारी यह दुर्गति हुई है, इसका परिमार्जन यही है कि तुम चौदह वर्ष तक अनन्तव्रत करो। इसीसे तुम्हारी समृद्धि पुनः प्राप्त हो जाएगी और तुम सुखी हो जाओगे ।' कौडिन्य ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया और विनम्रता पूछा ' हे दयानिधान, मैंने यहाँ आने से पूर्व मार्ग में कुछ विचित्र बातें देखीं हैं आप सर्वज्ञ हैं , कृपया मुझे उनके बारे में बता कर मेरी जिज्ञासा को शांत करें। '
भगवान ने कहा - ' सुनो तुमने जो कुछ भी देखा है मैं जानता हूँ। मार्ग में तुमने जो सड़े फलों वाला आम का पेड़ देखा था वह पूर्व जन्म में एक विद्वान ब्राह्मण था परन्तु उसने अपने शिष्यों को शिक्षा नहीं दी इसलिए वह इस प्रकार का आम का वृक्ष बना। अपने बछड़े के साथ इधर उधर भटकती जो गाय देखी वह बीज को खा जाने वाला पृथ्वी का भूभाग था, उपज नहीं देने के कारण वह अपना पेट भरने के लिए इधर उधर भटकने वाली गाय बनी। घास पर बैठा हुआ जो आलसी वृषभ देखा वह पूर्व जन्म में धर्म था परन्तु धर्म अधर्म का निर्णय सही नहीं करता था इसलिए आलसी बैल बना। एक दूसरे में कल्लोल करती जो दो पुष्करणियां(तलैया ) देखीं वे पूर्व जन्म में ब्राह्मण बहिनें थीं , वे धर्म अधर्म सबकुछ आपस में मिलबैठ कर ले लेती थीं और कोई परोपकार नहीं करती थीं, इसलिए इस जन्म में स्वयं में सुन्दर होते हुए भी उनका जल पीने योग्य नहीं था। जो धूल में टाँगे पछाड़ता गदहा देखा वह क्रोध तथा जो वनों को नष्ट करता मद मस्त हाथी देखा वह अभिमान था। अंत में जो ब्राह्मण तुम्हे मिला वह मैं हूँ। और जो गुफा देख रहे हो वह यह कठिन संसार है। जीव पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का फल भोगता है, जिसके कारण उसे अपने अनन्तरूप परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता। जब काम, क्रोध, लोभ और मोह से पिंड छूटता है तभी मनुष्य का मन निर्मल होकर अपने आपको प्रभु के लिए समर्पित करता है। और अंततः विराट स्वरूप भगवान के दर्शन होते हैं। अन्यथा पूर्वजन्म के कुत्सित संस्कारों के कारण वह इधर-उधर दौड़ता ही रहता है। '
यह कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। मुनि ने आकर अनंतचतुर्दशी व्रत प्रारम्भ कर दिया और पुनः समृद्धी को प्राप्त किया। इसी प्रकार है धर्मराज तुम भी अनंत व्रत करो।
अनुकरणीय सन्देश -
- धन का मद नहीं करना चाहिए।
- मद में आकर अनुचित कार्य करने से शुभकर्म से अर्जित ऐश्वर्य भी चला जाता है।
- क्रोध, अहंकार, स्वार्थ, आलस, कर्तव्यहीनता मानवता के शत्रु हैं।
- अपने ज्ञान को साझा करते रहना चाहिए।
- भगवान अनंत व्यापक है, दुनिया में आसक्ति के कारण उसका बोध नहीं होता है।
- सांसारिक विषयों से विमुख होकर ही जब मनुष्य अंतर्मुख होने लगता है तो उसे ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
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